________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 152-153 153 153. जे असत्ता पाहि कम्मेहि उदाहु ते आतंका' फुसंति / इति उदाहु धीरे / ते कासे पुट्ठोऽधियासते। से पुग्वं पेतं पच्छा पेतं मेउरषम्म विद्धसणषम्मं अघुवं अणितियं असासतं बयोवचइयं विप्परिणामषम्म / पासह एवं रूवसंधि / समुपेहमाणस्स एगायतणरतस्स इह विप्पमुक्कस्स पत्थि मग्गे विरयस्स सि बेमि / 152. इस मनुष्य लोक में जितने भी अनारम्भजीवी (अहिंसा के पूर्ण आराधक) हैं, वे (इन सावद्य-पारम्भ-प्रवृत्त गृहस्थों) के बीच रहते हुए भी अनारम्भजीवी (विषयों से निलिप्त-अप्रमत्त रहते हए जीते) हैं। ___ इस सावद्य-प्रारम्भ से उपरत अथवा पाहत्शासन में स्थित अप्रमत्त मुनि 'यह सन्धि (उत्तम अवसर या कर्मविवर-आस्रव) हैं--ऐसा देखकर उसे (कर्मविवरप्रास्त्रव को) क्षीण करता हुआ (क्षण भर भी प्रमाद न करे)। __ 'इस औदारिक शरीर (विग्रह) का यह वर्तमान क्षण है', इस प्रकार जो क्षणान्वेषी (एक-एक क्षण का अन्वेषण करता है एवं प्रत्येक क्षण का महत्त्व समझता है) है; (वह सदा अप्रमत्त रहता है)। यह (अप्रमाद का) मार्ग प्रार्यों (तीर्थंकरों) ने बताया है। (साधक मोक्ष की साधना के लिए) उत्थित होकर प्रमाद न करे / प्रत्येक का दुःख और सुख (अपना-अपना स्वतन्त्र होता है) (अर्थात् दु:खसुख के अंतरंग कारण कर्म सबके अपने-अपने होते हैं) यह जानकर प्रमाद न करे / इस जगत में मनुष्य पृथक्-पृथक् विभिन्न अध्यवसाय (अभिप्राय या संकल्प) वाले होते हैं, (इसलिए) उनका दुःख (या दुःख का अन्तरंग कारण कर्म) भी (नाना प्रकार का) पृथक्-पृथक होता है-ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। विविध प्रकार से समभाव से सहन करे। यदि उस विरत साधु को परीषहों का स्पर्श हो तो यह सूत्र वहाँ उपयुक्त है-पुढो फासे विप्प० / 5. 'अनवयमाणे' का अर्थ चूर्णिकार ने किया है-'अबदमाणे मुसाबाई' जो मृषावाद (झूठ) नहीं बोलता। 6. 'समियापरियाए वियाहिते' के बदले चूणि में 'समिताए परियाए वियाहिते' पाठ स्वीकार करके अर्थ किया गया है-'समगमणं समिया परिगमणं परियाए, विषिह आहिते वियाहिते-सम-मन है समिता, परिगमन है-पर्याय, विविध प्रकार से आहित व्याहित होता है। 1. 'आतका' के बदले चूणि में 'रोगातका' पाठ है / अर्थ होता है-रोगरूप उपद्रव / 2. इसके स्थान पर 'वीरो' या 'धीरों' पाठ मिलता है, जिसका अर्थ चूणि में किया गया है-"वी (धी) रो तित्थगरी अण्णतरो वा आयरियविसेसो।"-'वी (धी) र का अर्थ है-तीर्थकर या कोई आचार्य विशेष / 3. इसकी चणि में व्याख्या की गई है---"इट्ठाहारतो चिज्जति, तदभावा अवचिज्जति, प्रतो चयोबचइयं,” अर्थात्-अभीष्ट आहार से च्य होता है, उसके प्रभाव में अपचय होता है, इसलिए कहा--'चयोवघाइयं / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org