________________ आचारांग का यह द्वितीय श्रुतस्कंध पांच चूलिकाओं में विभक्त माना गया है। इनमें से चार चूला आचारांग में है, किंतु पांचवी चूला आचारांग से पृथक कर दी गई है और वह 'निशीथसूत्र' के नाम से स्वतंत्र आगम मान लिया गया है। यद्यपि निशीथसूत्र में आचारांग वर्णित आचार में दोष लगने पर उसकी विशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त विधान ही है, जो कि मूलत: उसी का अंग है, किंतु किन्ही कारणों से वह आज स्वतंत्र आगम है। अब आचार चूला में सिर्फ श्रमणाचार का विधि-निषेध पक्ष ही प्रतिपादित है, उसकी विशुद्धिरूप प्रायश्चित्त की चर्चा वहाँ नहीं है / इससे एक बात यह ध्वनित होती है कि आचारचूला व निशीथ मूलतः एकही कशल मस्तिष्क की संयोजना है। स्थानांग, समवायांग में इसे आचारकल्प या 'आचार प्रकल्प' कहा है, जो आचारांग का सम्बन्ध सूचक है। आचारांग की चार चूलाओं में प्रथम चूला सबसे विस्तृत है। इसमें सात अध्ययन है--- م له له له لب नाम उद्देशक विषय 1. पिण्डषणा —आहार शुद्धि का प्रतिपादन / 2. शय्यषणा संयम-साधना के अनुकूल स्थानशुद्धि 3. इय षणा गमनागमन का विवेक 4. भाषाजातैषणा भाषा-शुद्धि का विवेक 5. वस्त्रंषणा वस्त्रग्रहण सम्बन्धी विविध मर्यादाएं। 6. पात्रं षणा पात्र-ग्रहण सम्बन्धी विविध मर्यादाएँ 7. अवग्रहैषणा स्थान आदि की अनुमति लेने की विधि / इस प्रकार प्रथम चूला के 7 अध्ययन व 25 उद्देशक हैं / द्वितीय चूला के सात अध्ययन है, ये उद्देशक रहित हैं। 8- स्थान सप्तिका-- आवास योग्य स्थान का विवेक। 6. निषीधिका सप्तिका- स्वाध्याय एवं ध्यान योग्य स्थान-गवेषणा। 10. उच्चार-प्रस्रवण सप्तिका- शरीर की दीर्घ शंका एवं लघशंका निवारण का विवेक / بر لب (घ) गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स' दुज्जायं दुप्परिक्कतं..." (अ०५. उ० 4. सूत्र 162) इस आधार पर इर्याध्ययन का विस्तार किया गया है। (च) आइक्खइ विहेयइ किट्टेइ धम्मकामी... (अ० 6. उ० 5 सू० 166) इस सूत्र के आधार पर भाषाध्ययन नियूढ हुआ है। (छ) महापरिज्ञा अध्ययन के सात उद्देशक से सप्तसप्तिका नियंद है। (अ० 8 से 14) (ज) षष्ठ धृताध्ययन के 2, व 4 उद्देशक से विमुक्ति (16 वाँ) अध्ययन निर्यढ़ है। (झ) प्रथम शस्त्रपरिज्ञाध्ययन से भावना अध्ययन नियूंढ़ है। 1. हवइ य सपंचचूलो बहु-बहुतरओ पयम्गेणं--नियुक्ति 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org