SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 882
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 426 सोलहवाँ अध्ययन : सूत्र 802-804 803. जहा य बद्ध इह माणवेहि' या, जहा य तेसिं तु विमोक्ख आहिते / अहा तहा बंधविमोक्स जे विद्, से ह मुणी अंतकडे ति वुच्चई // 14 // 804. इमम्मि लोए परए य दोसु वो, ण विज्जती बंधणं जस्स किचि वि। से हू णिरालंबणयप्पतिद्वितो, कलंकलोभावपवंच विमुच्चति // 146 // ॥ति बेमि // 802. तीर्थ कर, गणधर आदि ने कहा है-अपार सलिल-प्रवाह वाले समुद्र को भुजाओं से पार करना दुस्तर है. वैसे ही संसाररूपी महासमुद्र को भी पार करना दुस्तर है। अतः इस संसार समुद्र के स्वरूप को (ज्ञ-परिज्ञा से) जानकर (प्रत्याख्यान-परिज्ञा मे) उसका परित्याग कर दे। इसप्रकार का त्याग करनेवाला पण्डित मुनि कर्मों का अन्त करने वाला कहलाता है। 803. मनुष्यों ने इस संसार में मिथ्यात्व आदि के द्वारा जिसरूप से--प्रकृति-स्थिति आदि रूप में कर्म बांधे है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन आदि द्वारा उन कर्मों का विमोक्ष होता है. यह भी बताया गया है। इस प्रकार जो विज्ञाता मुनि बन्ध और विमोक्ष का स्वरूप यथातथ्य रूप में जानता है, वह मुनि अवश्य ही संसार का या कर्मों का अन्त करने वाला कहा गया है। 804. इस लोक, परलोक या दोनों लोकों में जिसका किंचित्मात्र भी रागादि बन्धन नहीं है, तथा जो साधक निरालम्ब-इहलौकिक-पारलौकिक स्पृहाओं से रहित है, एवं जो कहीं भी प्रतिबद्ध नहीं है, वह साधु निश्चय ही संसार में गर्भादि के पर्यटन के प्रपंच से विमुक्त हो जाता है। —ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--प्रस्तुत तीनों सूत्रों द्वारा संसार को महासमुद्र की उपमा देकर कर्मास्रवरूप विशाल जलप्रवाह को रोक कर संसार का अन्त करने या कर्मों से विमुक्त होने का उपाय बताया गया है। वह क्रमशः इस प्रकार है-(१) संसार-समुद्र को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान-परिज्ञा से त्याग करे, (2) कर्मबन्ध कैसे हुआ है, इससे विमोक्ष कैसे हो सकता है, इस प्रकार बन्ध और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप जाने, (3) इहलौकिक-पारलौकिक रागादि बन्धन एवं स्पृहा से रहित, प्रतिबद्धता रहित हो।' संसार महासमुद्र-सूत्रकृतांग प्र० श्र० में भी 'जमाहु ओहं सलिल अपारगं' पाठ है। इससे मालूम होता है--संसार को महासमुद्र की उपमा बहुत यथार्थ है। चूर्णिकार ने सू०८०२ की 1. माणवेहि या के बदले पाठान्तर है -माणवेहि य, माणवेहि जहा 2. जस्स के बदले पाठान्तर है-तस्स--उसका / 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 431 के आधार पर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy