________________ 328 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध ने युक्त होकर कामगुण प्रत्ययिक कर्म मे पूर्ण नहीं होता, अथवा उसमें मलित नहीं होता। अथवा 'विज्जते' पाठान्तर मानने से अर्थ होता है-काम-गुणों में विद्यमान नहीं रहता / जो जहाँ प्रवृत्त होता है, वह वहीं विद्यमान कहलाता है। विसज्झती समीरियं रुपमलं व जोतिणा'--सम्यक् प्रेरित चांदी का मैल--किट्ट-अग्नि में तपाने से साफ हो जाता है। वैसे ही एमे भिक्षु द्वारा असंयमवश पुराकृत कर्ममल भी तपस्या की अग्नि से विशुद्ध (साफ) हो जाता है।' भुजंग-दृष्टान्त द्वारा बंधन मुक्ति की प्रेरणा 801. से हु परिण्णासमम्मि बट्टतो, णिराससे उवरय मेहुणे चरे। भुजंगमे जुष्णतयं जहा चए, विमुच्चती से दुहसेज्ज माहणे // 143 // 801. जैसे सर्प अपनी जीणं त्वचा--कांचली को त्याग कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसे ही जो मूलोत्तरगुणधारी माहन-भिक्षु परिज्ञा---परिज्ञान के समय--सिद्धान्त में प्रवृत्त रहता है, इहलोक-परलोक सम्बन्धी-आशंसा से रहित है, मैथुनसेवन से उपरत (विरत) है, तथा संयम में विचरण करता है, वह नरकादि दुःखशय्या या कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाता है / विवेचनप्रस्तुत सूत्र में सर्प का दृष्टान्त देकर समझाया गया है कि सपं जैसे अपनी पुरानी कैंचुली छोड़कर उससे मुक्त हो जाता है, वैसे ही जो मुनि ज्ञान-सिद्धान्त-परायण, निरपेक्ष, मैथुनोपरत एवं संयमाचारी है, वह पापकर्म या पापकर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली नरकादि रूप--दुःखशय्या से मुक्त हो जाता है। परिण्णा समयम्मि' आदि पदों के अर्थ-परिण्णा समयंमि-परिज्ञा में =परिज्ञान में या ज्ञान-समय में या ज्ञानोपदेश में। 'निराससे' आशा/प्रार्थना से रहित, इहलौकिकी या पारलौकिकी, प्रार्थना-अभिलाषा जो नहीं करता। उवरय मेहुणे' =मैथुन से सर्वथा विरत। चतुर्थ महाव्रती के अतिरिक्त उपलक्षण से यहाँ शेष महावतधारी का ग्रहण होता है। इस प्रकार विचरण करता हुआ सर्वकर्मों मे विमुक्त हो जाता है / ] दुहसेज्ज विमुच्चती-दुःखशय्या से दुखःमय नरकादि भवो से विमुक्त हो जाता है। अथवा दुःख-क्लेशमय संसार से मुक्त हो जाता है। महासमुद्र का दृष्टान्तः कर्म अन्त करने की प्रेरणा 802. जमाह ओहं सलिलं अपारगं, महासमुह व भुयाहि दुत्तरं / अहे व णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्चती // 144 // 1. (क) आचारांग चूणि मु० पा० टि० १ष्ठ 295, 266 / (ख आचारांग वृत्ति पत्रांक 860 / (ग) अंतिम दो पद की तुलना करें-दशव० 862 2. आचारांग बत्ति, पत्रांक 430 के आधार पर। 3. (क) आचारांग चूर्णि मू. पा० टि० पृष्ठ 267 / (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 830 / (ग) चार द:ख शय्याओं का वर्णन देखें --ठाणं स्था० 4 स०६५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org