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________________ सोलहवां अध्ययन : सूत्र 766-800 (2) क्षमादि दस धर्मों का पालक वितृष्ण एवं धर्मध्यानी मुनि की तपस्या, प्रज्ञा एवं कीति अग्निशिखा के तेज की तरह बढ़ती है, वही कर्ममुक्ति दिलाने में समर्थ है / (3) महाव्रतरूपी सूर्य कर्मसमूह रूप अन्धकार को नष्ट करके आत्मा को त्रिलोकप्रकाशक बना देते हैं। (4) कर्मपाशबद्ध लोगों-गृहस्थों के संसग से तथा स्त्रीजन एवं इह-पर-लोक सम्बन्धी कामना से भिक्ष दुर रहे। (5) सर्वसंगमुक्त, परिज्ञा (विवेक) चारी, धृतिमान, दुःखसहिष्णु भिक्षु के कर्ममल उसी तरह साफ हो जाते हैं, जिस तरह अग्नि से चांदी का मैल साफ हो जाता है।' 'उवेहमाणे "अकतवुक्खा...' उन बालजनों के प्रति या उन कठोर शब्द-स्पर्शों के प्रति उपेक्षा करता हुआ साधु / कुसलेहि----अहिंसादि में प्रवृत्त साधकों के साथ अहिंसा का आचरण करता रहे। क्योंकि सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है , त्रस और स्थावर दोनों प्रकार के संसारवर्ती प्राणी दुःखी हैं, यह जानकर समस्त जीवों की हिंसा न करे। 'सब सहें' के बदले पाठान्तर 'सन्वेषया' चूर्णिकार को मान्य प्रतीत होता है / अणं त जिणेण--चूर्णिकार के अनुसार अर्थ--.."मनुष्य, तिर्यच आदि रूप अनन्त संसार है, वह जिसने जीत लिया, वह अनन्तजित होता है। महत्वता खेमपदा पवेदिता भावदिशाओं (षट्जीवनिकायों) का पालन करने के लिए क्षेमपद वाले (कल्याणकारी) महाव्रत प्रतिपादित किये हैं; (उन अनन्त जिन, त्राता ने) / 'महागुरू निस्सयरा उदोरिता'चूर्णिकार के अनुसार-महाव्रत बड़ी कठिनता से ग्रहण किये जाते हैं, तथा गुरुतम--भारी होने के कारण ये महागुरु कहलाते हैं / निस्सयरा-का अर्थ है --णिस्सा करेंति खवंति = तीक्ष्ण करते या क्षय करते है / महाव्रत कैसे क्षपणकर कहे गए हैं ? जैसे तीनों दिशाओं के अन्धकार को सूर्य मिटा कर प्रकाश कर देता है, वैसे ही महावत त्रिजगत के कर्म रूप अन्धकार को मिटा कर आत्मज्ञान का प्रकाश कर देता है। सितेहि भिक्खू असिते परिवए' की व्याख्या चूर्णिकार के अनुसार –'जो अष्टविध कर्म से बद्ध हैं, अथवा गृहपाशों से बद्ध हैं, उनमें अनासक्त होकर असितगृहपाश से निर्गत कर्मक्षय = करने में उद्यत मुनि सम्यक् रूप से विचरण करे। 'असज्जमित्थीसु चएज्ज पूयणं-स्त्रियों में असक्त रहे और पूजा-सत्कार की आकांक्षा छोड़े। प्रथम में मूलगण की और दूसरे में उत्तरगुण की सुरक्षा का प्रतिपादन है। अणिस्सिए लोगमिण तहा परं-इहलोक और परलोक के प्रति अनाश्रित रहे / तात्पर्य यह है कि मूल-उत्तरगुणावस्थित साधु इहलोक और परलोक के निमित्त तप न करे / जैस धम्मिल ने इहलोक के निमित्त तप किया था, और ब्रह्मदत्त ने परलोक के निमित्त / ण मिज्जति कामगुणेहिं पंडिते– कामगुण के कटु विपाक का द्रष्टा पण्डित साधु काम-गुणों 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 30 के आधार पर / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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