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________________ 426 आचारांग सूत्र--द्वितीय श्रुतस्कन्ध ___800, तहा विमुक्कस्स परिणचारिणो, धितोमतो दुक्खखमस्स भिक्खुणो। विसुज्झती जंसि मलं पुरेकडं, समीरियं रुप्पमलं व जोतिणा // 142 / / 766. परिषहोपसर्गों को सहन करता हुआ अथवा माध्यस्थ्यभाव का अवलम्बन करता हुआ वह मुनि अहिंसादि प्रयोग में कुशल-गीतार्थ मुनियों के साथ रहे। त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय लगता है। अतः उन्हें दुःखी देखकर, किसी प्रकार का परिताप न देता हुआ पृथ्वी की भांति सब प्रकार के परीषहोपसर्गों को सहन करने वाला महामुनि त्रिजगत्स्वभाववेत्ता होता है / इसी कारण उसे सुश्रमण कहा गया है। 767. क्षमा-मार्दव आदि दशविध अनुत्तर (श्रेष्ठ) श्रमणधर्मपद में प्रवृत्ति करने वाला जो विद्वान - कालज्ञ एवं विनीत मुनि होता है, उस तृष्णारहित, धर्मध्यान में संलग्न, समाहित -चारित्र पालन में सावधान मुनि के तप, प्रज्ञा और यश अग्निशिखा के तेज की भांति निरंतर बढ़ते रहते हैं। 768. षट्काय के त्राता, अनन्त ज्ञानादि से सम्पन्न राग-द्वेष विजेता, जिनेन्द्र भगवान ने सभी एकेन्द्रियादि भावदिशाओं में रहनेवाले जीवों के लिए क्षेम (रक्षण) स्थान महाव्रत प्रतिपादित किये हैं। अनादिकाल से आबद्ध कर्म-बन्धन से दूर करने में समर्थ महान गुरुमहाब्रतों का उनके लिए निरूपण किया है। जिस प्रकार तेज तीनोंदिशाओं (ऊर्ध्व, अधो एवं तिर्यक्) के अन्धकार को नष्ट करके प्रकाश कर देता है, उसी प्रकार महाव्रत रूप तेज भी अन्धकाररूप कर्मसमूह को नष्ट करके (ज्ञानवान आत्मा तीनों लोकों में) प्रकाशक बन जाता है। 766. भिक्षु कर्म या रागादि निबन्धनजनक गृहपाश से बंधे हुए गृहस्थों या अन्य तीथिकों के साथ आबद्ध–संसर्गरहित होकर संयम में विचरण करे। तथा स्त्रियों के संग का त्याग करके पूजा-सत्कार आदि लालसा छोड़े। साथ हो वह इहलोक तथा परलोक में अनिश्रित-निस्पृह होकर रहे / कामभोगों के कटुविपाक का देखने वाला पण्डित मुनि मनोज्ञशब्दादि काम-गुणों को स्वीकार न करे। 800 तथा (मूलोत्तर-गृणधारी होने से) सर्वसंगविमुक्त, परिज्ञा (ज्ञानपूर्वक-) आचरण करने वाले, धृतिमान्–दुःखों को सम्यक्प्रकार से सहन करने में समर्थ, भिक्षु के पूर्वकृत कर्ममल उसी प्रकार विशुद्ध (क्षय) हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि द्वारा चांदी का मैल अलग हो जाता है। विवेचन—सूत्र 766 से 800 तक पांच गाथाओं में शास्त्रकार ने कर्ममल से विमुक्त होने की दिशा में साधु को क्या-क्या करना चाहिए? इसकी सुन्दर प्रेरणा रजतमल-शुद्धि आदि दृष्टान्त प्रस्तुत करके दी है। इसके लिए पांच कर्तव्य निर्देश इस प्रकार किये गए हैं (1) पृथ्वी की तरह सब कुछ सहने वाला मुनि दुःखाक्रान्त त्रसस्थावर जीवों की हिंसा से दूर रहे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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