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________________ सोलहवाँ अध्ययन : सूत्र 763-800 425 'तहप्पमारेहि जहिं होलिते'' को व्याख्या-वृत्तिकार एवं चूर्णिकार के अनुसार---जैसे कोली, चमार, असंस्कारी, दिल के काले, दरिद्र अनार्यप्रायः तथाप्रकार के बालजनों के द्वारा निन्दित या व्यथित होने पर। 'ससद्दफासा फरुसा उदोरिता' = उन बालजनों द्वारा अत्यन्त प्रबलता से किये गए या प्रेरित कठोर या तीव्र, अथवा अमनोज्ञ सशब्द-प्रहारों के स्पों या आक्रोशसहित शीतोष्णादि दुःखोत्पादक कठोरता से किये गए, या प्रेरित प्रहारों के स्पर्शों को। तितिक्खए णाणि-अबुट्ठचेतसा-उन प्रहारों को आत्मज्ञानी मुनि मन को द्वेषभाव आदि से दूषित किये बिना अकलुषित अन्तःकरण से सहन करे, / क्योंकि वह ज्ञानी है, "यह मेरे ही पूर्वकृत कर्मों का फल है," यह मानकर अथवा संयम के दर्शन मे, या वैराग्य भावना से या इस तत्त्वार्थ के विचार मे वह सहन करे कि "आक्रष्टेन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मतिः कार्या। यदि सत्यं कः कोप: स्यादनृतं किं नु कोपेन ? // " बुद्धिमान पुरुष को आक्रोश का प्रसंग आने पर तत्त्वार्थ विचार में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए / “यदि किसी का कथन सत्य है तो उसके लिए कैसा कोप? और यदि बात असत्य है तो क्रोध से क्या मतलब ?" इस प्रकार ज्ञानी साधक मन से भी उन अनार्यों पर द्वष न करे, वचन और कर्म से तो करने का प्रश्न ही नहीं है। ___गिरिव्व बातेण ण संपवेवए-- जिस प्रकार प्रबल झंझावात से पर्वत कम्पायमान नहीं होता, उसी प्रकार विचारशील साधक इन परीषहोपसर्गों से बिलकुल विचलित न हो।' रजत-शुद्धि का दृष्टान्त व कर्ममल शुद्धि की प्रेरणा 766. उवेहमाणे कुसलेहि संवसे, अकंतदुक्खा तस-यावरा दुही। __ अल्सए सम्बसहे महामुणी, तहा हि से सुस्समणे समाहिते // 138 // 797. विदू णते धम्मपयं अणुत्तरं, विणीततोहस्स मुणिस्स झायतो। समाहियस्सऽग्गिसिहा व तेयसा, तवो य पण्णा य जसो य वड्ढती // 139 / / 798. दिसोदिसिंऽणंतजिणेण ताइणा, महब्वता खेमपदा पवेदिता। महागुरु निस्सयरा उदीरिता, तमं व तेऊ तिदिसं' पगासगा // 140 // 766. सिहि भिक्खू असिते परिवए, असज्जमित्थीसु चएज्ज पूयणं / अणिस्सिए लोगमिणं तहा परं, ण मिज्जति कामगुणेहि पंडिते // 141 // 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 466 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 265 2. अकंतदुक्खा के बदले पाठान्तर है अतदुक्खी, अक्कंतदुक्खी। 3. वड्ढतो के बदले बट्टती पाठान्तर है। 4. तेऊ तिदिसं के बदले पाठान्तर है-तेऊ ति; तेजो ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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