________________ 424 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध आभ्यन्तर परिग्रह अथवा परिग्रह के निमित्त किया जाने वाला आरंभ छोड़े-परित्याग करे / आरम्भ और परिग्रह का त्याग अहिंसा और अपरिग्रह महाव्रत का सूचक है, अगारबन्धनव्युत्सर्ग शेष समस्त महाब्रतों को सूचित करता है।' पर्वत को उपमा तथा परीषहोपसर्ग सहन-प्रेरणा 794. तहागयं भिक्खुमणंतसंजतं, अणेलिसं विष्णु चरंतमेसणं / तुदंति वायाहिं अभिद्दवं णरा, सरेहि संगामगयं व कुंजरं // 136 / / 765. तहप्पगारेहि जणेहि हीलिते, ससद्दफासा फरुसा उदीरिया। तितिक्खए णाणि अदुट्ठचेतसा, गिरि व्व वातेण ण संपवेवए // 137 // 764. उस तथाभूत अनन्त (एकेन्द्रियादि जीवों) के प्रति सम्यक् यतनावान् अनुपमसंयमी आगमज्ञ विद्वान एव आगमानुसार आहारादि की एषणा करनेवाले भिक्षु को देखकर मिथ्या दृष्टि अनार्य मनुष्य उस पर असभ्य वचनों के तथा पत्थर आदि प्रहार से उसी तरह व्यथित कर देते हैं जिस तरह संग्राम में वीर योद्धा, शत्र के हाथी को वाणों की वर्षा से व्यथित कर देता है। 765. असंस्कारी एवं असभ्य (तथाप्रकार के) जनों द्वारा कथित आक्रोशयुक्त शब्दों तथाप्रेरित शीतोष्णादि स्पर्शों से पीड़ित ज्ञानवान भिक्ष प्रशान्तचित्त से (उन्हें) सहन करे / जिस प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, ठीक उसी प्रकार संयमशील मुनि भी इन परीषहोपसर्गों से विचलित न हो। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र द्वय में पर्वत की उपमा देकर साधु को परीषहों एवं उपसर्गों के समय विचलित न होने की प्रेरणा दी गई है। 'तहागयं भिक्खु' की व्याख्या-वृत्तिकार के अनुसार तथाभूत-अनित्यत्वादि भावना से गृहबन्धन से मुक्त, आरम्भ-परिग्रहत्यागी तथा अनन्त-एकेन्द्रियादि प्राणियों पर सम्यक् प्रकार से संयमशील, अद्वितीय जिनागम रहस्यवेत्ता विद्वान् एवं एषणा से युक्त विशुद्ध आहारादि से जीवन निर्वाह करने वाले ऐसे भिक्षु को। चूर्णिकार के अनुसार-जैसे (जिस मार्ग से) जिस गति से तीर्थकर, गणधर आदि गए हैं, उसीप्रकार जो गमन करता है, वह तथागत कहलाता है। अनन्त चारित्र-पर्यायों से युक्त एवं संयत-यावज्जीव संयमी-ज्ञानादि में असदृश-अद्वितीय, अथवा जो अन्यतीथिक आदि के तुल्य न हो, विद्वान एषणा से युक्त होकर अथवा मोक्षमार्ग का या संयम का अन्वेषण करते हुए विचरणशील तथागत साधु को ... / ' 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 426 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 264 2. "चरतमेसणं" के बदले पाठान्तर है-चरित एसणं, चरंत एसणं / 3. आचा० चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० 264 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org