________________ 238 आचारांग सूत्र--- द्वितीय श्रु तस्कन्ध 554. साधु-साध्वी को वस्त्र-ग्रहण करने के लिए आधे योजन से आगे जाने का विचार नहीं करना चाहिए। विवेचन-इस सूत्र में साधु-साध्वी के लिए बस्त्र याचना में क्षेत्र-सीमा बताई गई है। योजन चार कोस का माना जाता है / आधे योजन का मतलब है--दो कोस / आशय यह है कि साधु जहां अभी अपने सार्मिकों के साथ ठहरा हुआ है, उस गाँव से दो कोस जाकर वस्त्र आदि याचना करके वापस आने में संभवतः उसे रात्रि हो जाए, या रुग्णता आदि के कारण चक्कर आदि आने लगें, इन सब दोषों की संभावना के कारण तथा कुछ दिनों के लिए वस्त्रप्राप्ति का लोभ संवरण करने हेतु ऐसी मर्यादा बताई है। [शेष काल के बाद विहार करके उस ग्राम में जाकर वह वस्त्र की गवेषणा कर सकता है। औद्देशिक आदि दोष युक्त वस्त्रंषणा का निषेध 555. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुहिस्स पाणाई जहा पिंडेसणाए भाणियवं, एवं बहवे साहम्मिया, एग साहम्मिणि, बहवे साहम्मिणीओ, बहवे समण-माहण तहेव पुरिसंतरकडं जधा पिडेसणाए। 556. से भिक्खू बा 2 से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा अस्संजते भिक्खुपडियाए कोतं वा धोयं वा रत्तं वा घट्ट वा मट्ठ वा संमढ़वा संपधूवितं वा, तहप्पगारं वत्थं अपुरिसंतरकडं जाव णो पडिगाहेज्जा / अह पुणेवं जाणेज्जा पुरिसंतरकडं जाव पडिगाहेज्जा।' 555. साधु या साध्वी को यदि वस्त्र के सम्बन्ध में ज्ञात हो जाए कि कोई भावुक गृहस्थ धन के ममत्व से रहित निर्ग्रन्थ साधु को देने की प्रतिज्ञा करके किसी एक साधर्मिक साधु का उद्देश्य रखकर प्राणी, भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करके (तैयार कराया हुआ) औद्देशिक, या खरीद कर, उधार लेकर, जबरन छीन कर, दूसरे के स्वामित्व का, सामने उपाश्रय में लाकर दे रहा है, तो उसप्रकार का वस्त्र पुरुषान्तरकृत हो या न हो, बाहर निकाल कर अलग से साधु के लिए रखा हो या न हो, दाता के अपने अधिकार में हो या न हो, दाता द्वारा परिभुक्त (उपयोग में लाया हुआ) हो या अपरिभुक्त हो, आसेवित (पहना-ओढ़ा) हो या अनासेवित, उस वस्त्र को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी न ले। जैसे पिण्डैषणा अध्ययन में एक सार्मिकगत आहार-विषयक वर्णन किया गया है, ठीक उसी प्रकार यहाँ वस्त्र-विषयक वर्णन कहना चाहिए। तथा पिण्डषणा अध्ययन में जैसे 1. चणिकार ने 'परिसंतरकडं जाव पडिग्गाहेज्जा'का तात्पर्य बताया है-'विसोधिकोडी सव्वा संजयट्ठा ण कप्पति अपुरिसंतरकडादी, पुरिसंतरकडा कप्पति / ' अर्थात्-सर्वविशुद्ध नवकोटि से सभी साधुओं को अपुरु षान्तरकृत आदि विशेषणयुक्त वस्त्र नहीं कल्पता, पुरुषान्तरकृत आदि कल्पता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org