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________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 555-56 236 बहुत-से सार्मिक साधु एक साधर्मिणी साध्वी, बहुत-सी सार्मिणी साध्वियां, एवं बहुत-से शाक्यादि श्रमण-ब्राह्मण आदि को गिन-गिन कर तथा बहुत-से शाक्यादि श्रमण-ब्राह्मणादि का उद्देश्य रखकर जैसे औद्देशिक, क्रीत आदि तथा पुरुषान्तरकृत आदि विशेषणों से युक्त आहार-ग्रहण का निषेध किया गया है, उसीप्रकार यहाँ शेष पांचों आलापकों में बताए हुए बहुत-से साधर्मिक आदि का उद्देश्य रखकर समारम्भ से निर्मित, क्रीत आदि तथा अपुरुषान्तर कृत आदि विशेषणों से युक्त ऐसे वस्त्र ग्रहण के निषेध का तथा पुरुषान्तरकृत आदि होने पर ग्रहण करने को सारा वर्णन उसी प्रकार समझ लेना चाहिए / 536. साधु या साध्वी यदि किसी वस्त्र के विषय में यह जान जाए कि असंयमी गृहस्थ ने साधु के निमित्त से उसे खरीदा है, धोया है, रंगा है, घिस कर साफ किया है, चिकना या मुलायम बनाया है, संस्कारित किया है, धूप, इत्र आदि से सुवासित किया है, और ऐसा वह वस्त्र अभी पुरुषान्तरकृत यावत् दाता द्वारा आसेवित नहीं हुआ है, तो ऐसे अपुरुषान्तरकृत यावत् अनासे वित वस्त्र को अप्रासुक व अनेषणीय मान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे / यदि साधु या साध्वी यह जान जाए कि वह वस्त्र पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित है तो मिलने पर प्रासुक व एषणीय समझ कर उसे ग्रहण कर सकता है। विवेचन-एषणादोष से युक्त और मुक्त वस्त्रग्रहण : निषेध-विधान---प्रस्तुत दो सूत्रों में आधाकर्म आदि 16 उद्गम दोषों से युक्त वस्त्र ग्रहण का निषेध किया है / साथ ही यदि वह वस्त्र पुरुषान्तरकृत यावत् आसे वित हो वह साधु के निमित्त या साधु के लिए ही अलग से खासतौर से तैयार करा कर न रखाया हुआ हो, तथा आधाकर्म, औद्देशिक आदि दोषों की शंका नहीं रह जाती हो तो ऐसी स्थिति में साधु उस वस्त्र को प्रासुक एवं एषणीय समझ कर ग्रहण कर सकता है।' 'रत्त' के विषय में समाधान-रंगीन वस्त्र भगवान् महावीर के शासन के साधु-साध्वी ग्रहण नहीं करते, इसलिए यह पाठ सभी तीर्थकरों के साधु वर्ग को दृष्टि में रखकर अंकित नहीं प्रतीत होता है। क्योंकि भ० अजितनाथ (द्वितीय तीर्थकर) से भ० पार्श्वनाथ (23 वें तीर्थकर) तक के शासन के साधु-साध्वी पांचों रंगों के वस्त्र धारण कर सकते थे। अथवा 'रत्त' का अर्थ यह भी सम्भव है कि तुरंत उड़ने वाले रंगीन इत्र या चन्दन के चूर्ण, या केसर आदि किसी पदार्थ से सुगन्धित करते समय जल्दी छूट जाने वाले रंग से स्वाभाविक रूप से रंगा हुआ वस्त्र। ___ वस्त्रषणा में वोष प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम में प्रतिपादित वस्त्रग्रहण में आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्रजात, स्थापन, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, आच्छेद्य, अनिसृष्ट, एवं अभिहृत आदि दोष लगने की सम्भावना बताई है। जबकि दूसरे सूत्र में उल्लिखित वस्त्र 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 363 के आधार पर 2. अर्थागम प्रथम खण्ड, आचा० द्वि-श्रत० पृ० 130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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