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________________ चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने भी प्राय: प्रत्येक पद की विस्तृत व्याख्या की है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार प्रायः समान मिलती-जुलती व्याख्या करते हैं, किन्तु आचारांग द्वितीय में यह स्थिति बदल गई है / चूर्णि भी संक्षिप्त है, वृत्ति भी संक्षिप्त है तथा उत्तरवर्ती अन्य विद्वानों ने भी इस पर बहुत ही कम श्रम किया है। चूणि के अनुशीलन से पता चलता है-चूर्णिकार के समय में कोई प्राचीन पाठ-परम्परा उपलब्ध रही है, उसी के आधार पर चूर्णिकार व्याख्या करते हैं, किन्तु कालान्तर में वह पाठ-परम्परा लुप्त होती गई। वृत्तिकार के समक्ष कुछ भिन्न व कुछ अपूर्ण-से पाठ आते हैं। इसप्रकार कहीं कहीं तो दोनों के विवेचन में बहुत अन्तर लक्षित होता है। जैसे चूर्णिकार के अनुसार द्वितीयचला का चतुर्थ अध्ययन 'स्वसत्तक्किय' है, पांचौं अध्ययन सदृसत्तक्किय / जबकि वर्तमान में उपलब्ध वृत्ति के अनुसार पहले 'सहसत्तक्किय' है फिर 'रूवसत्तक्किय' / भावना अध्ययन में भी पाठ परम्परा में काफी भिन्नता है / चूर्णिकार के पाठ विस्तृत है / हमारे समक्ष आधारभूत पाठ-परम्परा के लिए मुनिश्री जम्बूविजय जी द्वारा संशोधितसंपादित 'आयारंग सुत्त रहा है / यद्यपि इसमें भी कुछ स्थानों पर मुद्रण-दोष रहा है, तथा कहीं कहीं पाठ छूट गया लगता है, जिसका उल्लेख शुद्धिपत्र में भी नहीं है। फिर भी अब तक प्रकाशित सभी संस्करणों में यह अधिक उपादेय व प्रामाणिक प्रतीत होता है। मुनिश्री नथमल जी संपादित 'आयारो तह आयार चूला' तथा 'अंगसुत्ताणि' भी हमारे समक्ष रहा है, किन्तु उसमें अतिप्रवृत्ति हुई है, 'जाव' शब्द के समग्न पाठ मूल में जोड़ देने से न केवल पाठ वृद्धि हुई है, किन्तु अनेक संदेहास्पद बातें भी खड़ी हो गई हैं / फिर आगम पाठ में अनुस्वार या मात्रा वृद्धि को भी दोष मानने की परम्परा जो चली आ रही है, तब इतने पाठ जोड़देना कैसे संगत होगा? अतः हमने उस पाठ को अधिक उपादेय नहीं माना / मुनिश्री जम्बूविजयजी ने टिप्पणों में पाठान्तर चूणि आदि विविध ग्रन्थों के संदर्भ देकर प्राचीन पाठ परम्परा का जो अविकल; उपयोगी व ज्ञानवर्धक रूप प्रस्तुत किया है वह उनकी विद्वत्ता में चारचांद लगाता है, अनुसंधाताओं के लिए अत्यधिक उपयोगी है। उनके श्रम का उपयोग हमने किया है—तदर्थ हम उनके बहुत आभारी हैं। संपादन की मौलिकताएं : आचारांग द्वितीय के अब तक प्रकाशित अनुवाद-विवेचन में प्रस्तुत संस्करण अपनी कुछ मौलिक विशेषताएँ रखता है जिनका सहजभाव से सूचन करना आवश्यक समझता हूं। 1. पाठ-शुद्धि का विशेष लक्ष्य। 2. ऐसे पाठान्तरों का उल्लेख, जिनका भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी महत्त्व है तथा कुछ भिन्न, नवीन व प्राचीन अर्थ का उद्घाटन भी होता है। 1. देखें सूत्र 734-- "दाहिणकुडपुर संणिवेसंसि / ' होना चाहिए— 'दाहिण माहणकुडपुर संणिवेसंसि / " सूत्र 735 में यह पाठ पूर्ण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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