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________________ 50 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 'पुरा असिणादि वा' इत्यादि पदों के अर्थ-असिणादि=पहले दूसरे श्रमणादि उस अग्रपिण्ड का सेवन कर चुके हैं, अवहारादि-कुछ पहले व्यवस्था या अव्यवस्थापूर्वक जैसे-तैसे उसे ले चुके / खदं खददं =जल्दी-जल्दी।' विषम मागादि से भिक्षाचर्यार्थ गमन-निषेध 353. से भिक्खू वा 2' जाव समाणे अंतरा से वप्पाणि वा फलिहाणि वा पागाराणि वा तोरणाणि वा अग्गलाणि वा अग्गलपासगाणि वा, सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जुयं गच्छेज्जा। केवली वूया-आयाणमेयं / से तत्थ परक्कममाणे पयलेज्ज वा पबडेज्ज वा, से तत्थ पयलमाणे वा पवडमाणे वा तत्थ से काए उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेग वा सिंघाणएण वा वतेण वा पित्तेण वा पूरण वा सुक्केण वा सोणिएण वा उवलित्ते सिया। तहप्पगारं कार्य णो अणंतरहियाए पुढवोए, णो ससणिद्धाए पुढवीए, णो ससरक्खाए पुढवीए, णो चित्तमंताए सिलाए, जो चित्तमंताए लेलए, कोलावासंसि वा दारुए जीवपतिट्टिते सअंडे सपाणे जाव 1. टीका पत्र 336 / 2. जहाँ-जहाँ 2 का चिन्ह है वहां 'भिक्खूणो वा' पाठ समझना / 3. यहाँ 'जाव' शब्द सूत्र 328 के अनुसार समग्र पाठ का सूचक है। 4. तुलना करिए- दशवकालिक (51227 एवं 6 गाथा) 5. 'अणंतरहियाए' आदि पदों की व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की है--"अणंतरहिता नाम, तिरो अंतर्धाने, न अंतहिता, सचेतणा इत्यर्थः, सचेतणा अहवा अणतेहि रहिता इत्यर्थः / ससणिदा घडओ |त्थ पाणियभरितो पल्हत्थतो, वासं वा पडियमेत्तयं / ससरक्खा सचिता मटिट्ता तहि पति या सगडमादिणा णिज्जमाणी कुभकारादिणा लवणं वा / चित्तमंता सिला सिला एव सचिता / लेलू मट्टिताउंडओ सचित्तो चेव। कोलो नाम धुणो तस्स आवासं कठ्ठ, अन्ने वा दारुए जीवपतिते हरितादीणं उरि उद्देहिमणे वा सचित्ते वा सअंडे सपाण पव्वणिता। आमज्जति एक्कासि / पम्मज्जति पुणो पुणो।" 'अणंतरहियाए' आदि पदों की चर्णिकार-कृत व्याख्या का अर्थ इस प्रकार हैं-अर्थात् अणंतरहिता (अनन्तहिता) का अर्थ होता हैं जिसकी चेतना अन्तहित न हो -तिरोहित न हो, अर्थात् जो सचेतन हो अथवा अनन्तों (अनन्त निगोद भाव) मे रहित हो, वह अनन्त-रहित है। ससणिशा स्निग्ध पृथ्वी, जैसे पानी का घड़ा पलट जाने से (मिट्टी पर) वह स्निग्ध हो जाती है, या मिट्टी पर पानी का वर्तन सिर्फ पड़ा हो वह भी स्निग्ध पृथ्वी है। ससरक्खा सचित्त मिट्टी, जहाँ गिरती है. जिसे कुम्भकार आदि गाड़ी आदि से ढोकर ले जाते हैं, अथवा सचित्त नमक / चित्तमंता सिला-जो जिला ही सचित्त हो, लेलू-मिट्टी का ढेला. जो सचित्त होता है। कोल-कहते हैं घुन को, उसका आवास काष्ठ होता है। अन्य जो लकड़ी, जीवप्रतिष्ठित हो, हरित पर या लकड़ी पर दीमक लग जाने से या सचित्त हो, 'सअंडे सपाणे का अर्थ पहले कहा जा चुका है। आमज्जति -एक बार, पमज्जति बार-बार प्रमार्जन करना है। 6. यहाँ 'जाव' शब्द सूत्र 324 में पठित 'सपाणे' से 'संताणए' तक के पाठ का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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