________________ प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 8-14 11. संति पाणा पुढो सिआ / 11. पृथ्वीकायिक प्राणी पृथक्-पृथक् शरीर में पाश्रित रहते हैं अर्थात् वे प्रत्येकशरीरी होते हैं। 12. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवत्यहि सत्थेहि पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति / 12. तू देख! प्रात्म-साधक, लज्जमान है.---(हिंसा से स्वयं का संकोच करता हुअा अर्थात् हिंसा करने में लज्जा का अनुभव करता हुअा संयममय जीवन जीता है।) __ कुछ साधु वेषधारी 'हम गृहत्यागी हैं' ऐसा कथन करते हुए भी वे नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वीसम्बन्धी हिंसा-क्रिया में लगकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं। तथा पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा के साथ तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार के जीवों को भी हिंसा करते हैं। 13. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता / इमस्स चेव जीवियस्स परिचंदण-माणणपूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघातहेउं से सयमेव पुढविसत्थं समारंभति, अण्णेहि वा पुढविसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणति / तं से अहिआए, तं से अबोहीए। 13. इस विषय में भगवान महावीर स्वामी ने परिज्ञा/विवेक का उपदेश किया है। कोई व्यक्ति इस जीवन के लिए, प्रशंसा-सम्मान और पूजा के लिए, जन्म मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, तथा हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है। वह (हिंसावृत्ति) उसके अहित के लिए होती है। उसकी अबोधि अर्थात् ज्ञानबोधि, दर्शन-बोधि, और चारित्र-बोधि की अनुपलब्धि के लिए कारणभूत होती है। 14. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा इहमेगेसि णातं भवति–एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए। 1. जो वस्तु, जिस जीवकाय के लिए मारक होती है, वह उसके लिए शस्त्र है। नियुक्तिकार ने (गाथा 95-96) में पृथ्वीकाय के शस्त्र इस प्रकार गिनाये हैं ---- 1. कुदाली आदि भूमि खोदने के उपकरण 2. हल आदि भूमि विदारण के उपकरण 3. मृगशग 4. काठ-लकड़ी तृण आदि 5. अग्निकाय 6. उच्चार-प्रस्रवण (मल-मूत्र); स्वकाय शस्त्र; जैसे-काली मिट्टी का शस्त्र पीली मिट्टी, आदि 8. परकाय अस्त्र; जैसे-जल आदि, 9. तदुभय शस्त्र; जैसे--मिट्टी मिला जल; 10. भावशस्त्र---असंयम / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org