________________ आचारांग सूत्र—प्रथम श्र तस्कन्ध 3. सम्मान की प्राप्ति के लिए, 4. पूजा आदि पाने के लिए, 5. जन्म-सन्तान आदि के जन्म पर, अथवा स्वयं के जन्म निमित्त से, 6. मरण-मृत्यु सम्बन्धी कारणों व प्रसंगों पर, 7. मुक्ति की प्रेरणा या लालसा से, (अथवा जन्म-मररण से मुक्ति पाने की इच्छा से) 8. दु:ख के प्रतीकार हेतु-रोग, आतंक, उपद्रव प्रादि मिटाने के लिए। 8. एयाति सव्वायंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवति / 9. जस्सेते लोगंसि कम्मसमारंभा परिण्णया भांति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि। ॥पढमो उद्देसओ समत्तो॥ 8. लोक में (उक्त हेतुओं से होने वाले) ये सब कर्मसमारंभ/हिंसा के हेतु जानने योग्य और त्यागने योग्य होते हैं। 9. लोक में ये जो कर्मसमारंभ/हिंसा के हेतु हैं, इन्हें जो जान लेता है (और त्याग देता है) वही परिज्ञातकर्मा' मुनि होता है / / —ऐसा मैं कहता हूँ। ॥प्रथम उद्देशक समाप्त // बिइओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक पृथ्वीकायिक जीवों की हिमा का निषेध 10. अट्ट लोए परिजुण्णे दुस्संबोधे अविजाणए। अस्सिं लोए पटवाहिए तत्थ तस्थ पुढो पास आतुरा परिताति / 10. जो मनुष्य आर्त, (विषय-वासना-कषाय-आदि से पीड़ित) है, वह ज्ञान दर्शन से परिजीर्ण/हीन रहता है। ऐसे व्यक्ति को समझाना कठिन होता है, क्योंकि वह अज्ञानी जो है। अज्ञानी मनुष्य इस लोक में व्यथा-पीड़ा का अनुभव करता है। काम, भोग व सुख के लिए अातुर लालायित बने प्रारणी स्थान-स्थान पर पृथ्वीकाय आदि प्राणियों को परिताप (कष्ट) देते रहते है। यह तू देख ! समझ! 1. परिज्ञातानि, जपरिज्ञया स्वरुपतोऽवगतानि प्रत्याख्यानपरिजया च परिहतानि कर्मारिण येन स परिज्ञातकर्मा / -स्थानांगवत्ति 3 / 3 (अभि. रा. भाग 5 पृ० 622) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org