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________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 4-7 6. अपरिण्णायकम्मे खल अयं पुरिसे जो इमाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अणसंचरति, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ सहेति, अणेगरूवाओ जोणीओ संधेति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदयति। 7. तस्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता। इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए' दुक्खपडिघातहेतु। 6. यह पुरुष, जो अपरिज्ञातकर्मा है (क्रिया के स्वरूप से अनभिज्ञ है, इसलिए उसका अत्यागी है) वह इन दिशाओं व अनुदिशाओं में अनुसंचरण/परिभ्रमण करता है। अपने कृत-कर्मों के साथ सब दिशाओं/अनुदिशाओं में जाता है। अनेक प्रकार की जीव-योनियों को प्राप्त होता है। वहां विविध प्रकार के स्पर्शो (सुख-दुख के ग्राघातो) का अनुभव करता है। 7. इस सम्बन्ध में ( कर्म-बन्धन के कारणों के विषय में ) भगवान् ने परिज्ञा. विवेक का उपदेश किया है। (अनेक मनुष्य इन पाठ हेतुओं से कर्मसमारंभ-हिंसा करते हैं)-- 1. अपने इस जीवन के लिए, 2. प्रशंसा व यश के लिए, 1. चूगि में-भोयणाए-पाठान्तर भी है, जिसका भाव है, जन्म-मरण सम्बन्धी भोजन के लिए। 2. आगमों में 'स्पर्श' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। साधारणतः त्वचा-इन्द्रियग्नाह सुख-दुःखात्मक संवेदन/अनुभूति को स्पर्श कहा गया है, किन्तु प्रसंगानुसार इससे भिन्न-भिन्न भावों की सूचना भी दी गई है। जैसे—सूत्रकृतांग (1 / 3 / 1 / 17) में एते भो कसिमा फासा–से स्पर्श का अर्थ परीषह किया है / प्राचारांग में अनेक अर्थो में इसका प्रयोग हुअा है। जैसे-इन्द्रिय-सुख (सूत्र 164) गाढ प्रहार प्रादि से उत्पन्न पीड़ा (सूत्र 179 / गाथा 15) उपताप व दुख विशेष (सूत्र 206) अन्य सूत्रों में भी 'स्पर्श' शब्द प्रसंगानुसार नया अर्थ व्यक्त करता रहा है / जैसे--- परस्पर का संघट्टन (छूना) बृहत्कल्प 13 सम्पर्क सम्बन्ध, सूत्रकृत् 111 स्पर्शना--प्राराधना बहत्कल्प 112 स्पर्शन-अनुपालन करना ---भगवती 157 गीता (2 / 14, 5/21) में इन्द्रिय-सुख के अर्थ में स्पर्श शब्द का अनेक वार प्रयोग हया है। बौद्ध ग्रन्थों में इन्द्रिय-सम्पर्क के अर्थ में 'फस्स' शब्द व्यवहत हुआ है। (मज्झिमनिकाय सम्मादिट्टि सुन 3. परिज्ञा के दो प्रकार हैं—(१) ज्ञ-परिज्ञा-वस्तु का बोध करना / सावध प्रवृत्ति से कर्मबन्ध होता है यह जानना तथा (2) प्रत्याख्यान-परिज्ञा-बंधहेतु सावद्ययोगों का त्याग करना / —"तत्र ज्ञपरिज्ञया, सायद्यव्यापारेरण बन्धो भवतीत्येवं भगवता परिज्ञा प्रवेदिता प्रत्याख्यानपरिजया च सापचय रंगा बन्धहेतवः प्रत्याख्येया इत्येवंरुपा चेति / " -आचाशीलांक टीका पत्रांक 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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