________________ गोम्मटसार, धवला, जयधवला, अंगपण्णत्ति तत्त्वार्थराजतिक आदि दिगम्बर परम्परा के मननीय ग्रन्थों में प्राचारांग का जो परिचय प्रदान किया गया है उससे यह स्पष्ट होता है कि आचारांग में मन, वचन, काया, भिक्षा, ईर्या, उत्सर्ग, शयनासन और विनय इन आठ प्रकार की शुद्धियों के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में पूर्ण रूप से यह वर्णन प्राप्त होता है। श्राचारांग का पदप्रमाण प्राचारांगनियुक्ति' हारिभद्रीया नन्दीवृत्ति नन्दीसूत्रचूणि और आचार्य अभयदेव को समवायांगवृत्ति में प्राचारांग सूत्र का परिमाण 18 हजार पद निर्दिष्ट है। पर, प्रश्न यह है कि पद क्या है ? जिनभद्रगणो क्षमाश्रमण ने पद के स्वरूप पर चिन्तन करते हए लिखा है कि पद अर्थ का वाचक और द्योतक है / बैठना, बोलना, अश्व वृक्ष आदि पद वाचक कहलाते हैं। प्र, परि, च, वा आदि अव्यय पदों को द्योतक कहा जाता है / पद के नामिक, नेपातिक, औपसगिक, आख्यातिक और मिश्र प्रादि प्रकार हैं / अनुयोगद्वार वृत्ति' दशवकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णी दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति आचारांग शीलांक वृत्ति में उदाहरण सहित पद का स्वरूप प्रतिपादित किया है। प्राचार्य देवेन्द्रसूरि ने० पद की व्याख्या करते हुए लिखा है-'अर्थसमाप्ति का नाम पद है / ' पर प्राचारांग आदि में अठारह हजार पद बताये गए हैं / किन्तु पद के परिमाण के सम्बन्ध में परम्परा का अभाव होने से पद का सही स्वरूप जानना कठिन है। प्राचीन टीकाकारों ने भी स्पष्ट रूप से कोई समाधान नहीं किया है। जयधवला में प्रमाणपद, अर्थपद और मध्यमपद, ये तीन प्रकार बताये हैं। पाठ अक्षरों वाला प्रमाण पद है। चार प्रमाण पदों का एक श्लोक या गाथा होती है। जितने अक्षरों से अर्थ का बोध हो वह अर्थपद है / 16348307888 अक्षरों वाला मध्यम पद कहलाता है / जयधवला का अनुसरण ही घवला, मोम्मटसार, अंगपण्णत्ती में हुआ है / प्रस्तुत दृष्टि से प्राचारांग के अठारह हजार पदों के अक्षरों की संख्या की परिगणना 294 269 541 198 4000 होती है / और अठारह हजार पदों के श्लोकों की संख्या 919 592 2311 87000 बताई गई है। यह एक ज्वलन्त सत्य है कि जो पद-परिमाण प्रतिपादित किया गया है उस में कालक्रम की दृष्टि से बहुत कुछ परिवर्तन हुआ है। वर्तमान में जो प्राचारांग उपलब्ध है उसमें कितनी ही प्रतियों में दो हजार छ: सौ चमालीस श्लोक प्राप्त होते हैं तो कितनी ही प्रतियों में दो हजार चार सौ चौपन, तो कितनी प्रतियों में दो हजार पांच सौ चौपन भी मिलते हैं / यदि हम तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करें तो सूर्य के उजाले की भाँति यह ज्ञात हुये बिना नहीं रहेगा कि जैन आगम-साहित्य के साथ ही यह बात नहीं हुयी है किन्तु बौद्ध त्रिपिटिक-मझिम निकाय, दीघनिकाय, संयुक्त निकाय में जो सूत्र संख्या बताई गई है वह भी वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। वही बात वैदिक-परम्परा मान्य ब्राह्मण, पारण्यक, उपनिषद् और पुराण-साहित्य के 1. प्राचारांग नियुक्ति गाथा 11 / 2. हारिभद्रीया नन्दीवृत्ति पृष्ठ 76 / 3. नन्दीसूत्र चूर्णी पृष्ठ 32 / 4. समवायांग वृत्ति पृष्ठ 108 / 5. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 1003, पृष्ठ 48.67 / अनूयोगद्वार वत्ति पृष्ठ 243-244 / दशकालिक अगस्त्यसिंह ची, पृष्ठ 9 / 8. दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति 111 9. आचारांग शीलांकवृत्ति 11 10. कर्मग्रन्थ-प्रथम कर्मग्रन्थ गाथा 7 / 1281 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org