________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध ____ 728. यदि कोई गृहस्थ, शुद्ध वाग्बल (मंत्रबल) से साधु की चिकित्सा करनी चाहे, अथवा वह गृहस्थ अशुद्ध मंत्रबल से साधु की व्याधि उपशान्त करना चाहे, अथवा वह गृहस्थ किसी रोगी साधु की चिकित्सा सचित्त कंद, मूल, छाल, या हरी को खोदकर या खींचकर बाहर निकाल कर या निकलवा कर चिकित्सा करना चाहे, तो साधु उसे मन से भी पसंद न करे, और न ही वचन से कहकर या काया से चेष्टा करके कराए। यदि साधु के शरीर में कठोर वेदना हो तो (यह विचार कर उसे समभाव से सहन करे कि) समस्त प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व अपने किये हुए अशुभ कर्मों के अनुसार कटुक वेदना का अनुभव करते हैं। विवेचन-विविध परिचर्यारूप परक्रिया का निषेध-सू० 725 से 728 तक गृहस्थ द्वारा साधु की विविध प्रकार से की जाने वाली परिचयां के मन, वचन, काया से परित्याग का निरूपण है / इन सूत्रों में मुख्यतया निम्नोक्त परिचर्या के निषेध का वर्णन है-(१) साधु को अपने अंक या पर्यंक में बिठा या लिटा कर उसके चरणों का आमाजन-परिमार्जन करे, (2) आभूषण पहना कर साधु को सुसज्जित करे, (3) उद्यानादि में ले जा कर पैर दबाने आदि के रूप में परिचर्या करे, (4) शुद्ध या अशुद्ध मंत्रबल से रोगी साधु की चिकित्सा करे, (5) सचित्त कंद, मूल आदि उखाड़ कर या खोद कर चिकित्सा करे।। ___ अंक-पर्यंक का विशेष अर्थ-चुर्णिकार के अनुसार अंक का अर्थ उत्संग या गोद है जो एक घटने पर रखा जाता है, किन्तु पर्यक वह है जो दोनों घुटनों पर रखा जाता है। मथुन की इच्छा से अंक-पर्यक शयन -- अंक या पर्यंक पर साधु को गृहस्थ स्त्री द्वारा लिटाया या बिठाया जाता है, उसके पीछे रति-सहवास की निकृष्ट भावना भी रहती है, अंक या पर्यक पर बिठाकर साधु को भोजन भी कराया जाता है, उसकी चिकित्सा भी सचित्त समारम्भादि करके की जाती है / निशीथ सूत्र उ० 7 एवं उसकी चूणि में इस प्रकार का निरूपण मिलता है / अगर इस प्रकार की कुत्सित भावना से गृहस्थ स्त्री या पुरुष द्वारा साधु की परिचर्या की जाती है, तो वह परिचर्या साधु के सर्वस्व स्वरूप संयम-धन का अपहरण करने वाली है / साधु को इस प्रकार के धोखे में डालने वाले मोहक, कामोत्तेजक एवं प्रलोभन कारक जाल से बचना चाहिए। पर-क्रिया के समान ही सूत्र 727 में अन्योन्यक्रिया (साधुओं की पारस्परिक क्रिया) का भी निषेध किया है। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 2. (क) आचारांग चूणि मू. पा. टि. पृ. २५६-अंको उच्छंगो एगम्मि जणुगे उक्खित्ते; पलियंको दोसु वि / (ख) निशीथणि प. 400/406 एगेण उहएणं अंको, दोहिं वि उरुएहि पलियंको।" / 3. देखिए निशीथ सप्तम उद्देशक चूणि पृ० 408 --'जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकसि वा पलिअंकसि वा णिसीयावेता वा सुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं बा अणुग्धासेज्ज वा अणुपाएज्ज था।"---एस्थ जो मेहणठाए णिसीयावेति तुयट्टादेति वा ते चेव दोसा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org