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________________ तेरहवाँ अध्ययन : सूत्र 725-28 353 परिचर्यारूप परक्रिया-निषेध 725. से से परो अंकसि वा पलियंकसि वा तुयट्टावेत्ता पायाइं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, [णो तं सातिए णो तं णियमे।] एवं हेट्ठिमो गमो पादादि भाणितव्यो। 726. से से परो अंकंसि वा पलियंकंसि वा तुयट्टावेत्ता हारं वा अड्ढहारं वा उरत्थं वा गेवेयं वा मउड वा पालंबं वा सुवष्णसुत्तं वा आविधेज' वा पिणिधेज वा, णो तं सातिए जो तं णियमे। 727. से से परो आरामंसि बा उज्जाणंसि वा णीहरित्ता वा विसोहिता वा पायाई आमज्जेज्ज वा, पमज्जज्ज वा जो तं सातिए णो तं णियमें एवं यन्वा अण्णमण्णकिरिया वि। 728. से से परो सुद्धणं वा बइबलेणं तेइच्छं आउट्टे, से से परो असुद्धणं वइबलेणं तेइच्छं आउट्टे, से से परो गिलाणस्स सचित्ताई कंदाणि बा मूलाणि वा तयाणि वा हरियाणि वा खणित्तु वा कड्ढेत्तु वा कड्ढावेत्तु वा तेइच्छं आउट्टेज्जा, णोतं सातिए णो तं नियमे / कडवेयणा कटु वेयणा पाण-भूत-जीव-सत्ता वेवणं वेति / 725. यदि कोई गृहस्थ, साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटाकर या करवट बदलवा कर उसके चरणों को वस्त्रादि से एकबार या बार-बार भलीभांति पोंछकर साफ करे; साध इसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से उसे कराए। इसके बाद चरणों से सम्बन्धित नीचे के पूर्वोक्त 6 सूत्रों में जो पाठ कहा गया है, वह सब पाठ यहाँ भी कहना चाहिए। . 726. यदि कोई गृहस्थ साधु को अपनी गोद में या पलंग पर लिटा कर या करवट बदलवाकर उसको हार अठारह लड़ीवाला), अर्धहार (ह लड़ी का), वक्षस्थल पर पहनने योग्य आभूषण, गले का आभूषण, मुकुट, लम्बी माला, सुवर्णसूत्र बांधे या पहनाए तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न वचन और काया से उससे ऐसा कराए। 727. यदि कोई गृहस्थ साधु को आराम या उद्यान में ले जाकर या प्रवेश कराकर उसके चरणों को एक बार पोंछे, बार-बार अच्छी तरह पोंछकर साफ करे तो साधु उसे मन मे भी न चाहे, और न वचन व काया से कराए। इसी प्रकार साधुओं की अन्योन्यक्रिया-पारस्परिक क्रियाओं के विषय में भी ये सब सूत्र पाठ समझ लेने चाहिए। 1. 'आविधेज्ज' के बदले पाठान्तर हैं...-आविहेज्ज, आविधेज्ज, आवंधेज्ज हाविहेज्ज। 2. 'विसोहिता' के बदले 'परिभेत्ता वा पायाइ" पाठान्तर हैं। 3. तयाणि' के बदले पाठान्तर है-'बीयाणि' 4. आउटेज्जा' के बदले पाठान्तर है-'आउट्टावेज्ज' 5. 'वेदणं वेति' आदि पाठ के आगे चणि कार ने 'छटठं सत्तिक्कयं समाप्तमिति' पाठ दिया है, इससे प्रतीत होता है कि सूत्र 726 का 'एयं खलु तस्सा,.........'आदि पाठ चूर्णिकार के मतानुसार नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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