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________________ तेरहवाँ अध्ययन : सूत्र 726 355 'तुयट्टावेत्ता' आदि पदों के अर्थ--तुपट्टावेत्ता =करवट बदलवा कर, लिटाकर या बिठाकर उरत्थं = वक्षस्थल पर पहने जाने वाले आभूषण / आविधेज्ज = पहनाए या बाँधे / पिणीधेज्ज = पहनाए या बाँधे / आउट्टे = करना चाहे / वइबलेण = वाणी (मन्त्रविद्या आदि) के बल से। खणित्तु = खोदकर, उखाड़ कर / कड्ढेत्त - निकाल कर / ' 'कडवेयणा'...."वेदंति' सूत्र का तात्पर्य-चूर्णिकार के शब्दों में---इसलिए साधु को शरीर परिकर्म से रहित होना चाहिए। क्योंकि चिकित्सा की जाने पर भी मानव पचते हैं। वे पचते हैं पूर्वकृत-कर्म के कारण। इसप्रकार पचते हुए वे दूसरों को भी संताप-दुःख देते हैं / जो इस समय पचते हैं, वे भविष्य में पचेंगे / कर्म अपने अनन्त गुने कटु विपाक (फल) को लेकर आता है। किसमें आता है ? कर्ता के पीछे-पीछे कर्म आते हैं / अर्थात् - कर्ता कर्म करके या किये हुए कर्मों का वेदन करता है / वेदन का वेत्ता ही इस वेदन के द्वारा कर्म वेदन को विदारित करता है / सभी कर्म से विमुक्त होता है / अथवा कर्म करके दुःख होता है या दुःख स्पर्श करता है इसलिए इस समय दुःख नहीं करना चाहिए। वेदना के समय साधु का चिन्तन-इस संसार में जीव अपने पूर्वकृत कर्म फल के विषय में स्वाधीन है। कर्म फल को कटु वेदना मानकर कर्मविपाक, शारीरिक एवं मानसिक वेदनाएं संसार के सभी जीव स्वतः ही भोगते हैं। ___ 726. एवं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्व? [हिं सहिते समिते सदा जते, सेयमिणं मण्णज्जासि त्ति बेमि / / 726. यही (परक्रिया से विरति ही) उस साधु या साध्वी का समग्र आचार सर्वस्व है, जिसके लिए समस्त इहलौकिक-पारलौकिक प्रयोजनों से युक्त तथा ज्ञानादि-सहित एवं समितियों से समन्वित होकर सदा प्रयत्नशील रहे। और इसी को अपने लिए श्रेयस्कर समझे। ---ऐसा मैं कहता हूँ। // तेरहवां अध्ययन, छठी सप्तिका सम्पूर्ण // 1. (क) आचा. वृत्ति पत्रांक 416 (ख) आचा. चूणि मूल पाठ टि. प. २५६---वाग्बलेन मंत्रादिसामर्थेन चिकित्सा व्याध्युपशमं आउट्टे सि कर्तुमभिलषेत् / 2. (क) "तम्हा अपडिकम्मसरीरेण होयवं, कि कारण ? जेण तिगिच्छाए कीरमाणीए पच्चंति पयंति माणवा, पच्चंति पूर्वकृतेन कर्मणा, ते पच्चभागा अ [भ्याj न्यपि संतापयंति य, दुक्खापयतीत्यर्थः / अहवा कृत्वा दुक्खं भवति फुसति च तम्हा संपयं न करेमि दुक्ख / --आचा. पूणि पृ. 157. (ख) आचा०' दीत्त पत्रांक 416, जीवाः कर्मविपाककृतकटुकवेदनाः कृत्वा परेषां वेदनाः स्वतः प्राणि-भत-जीव सत्वाः तत्कर्मविपाकजां वेदनामनभवन्तीति / ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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