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________________ आचारांग सूत्र---द्वितीय तस्कन्ध (2) पूर्व-पश्चात्-परिचित गृहस्थों के यहां भिक्षाकाल से पूर्व न जाए, (3) कदाचित अनजाने में चला भी जाए, तो उन घरों से बचकर अन्य घरों में भिक्षा करे / (4) भिक्षाकाल में भिक्षाटन करते देख परिचित गृहस्थ को आधार्मिक दोषयुक्त आहार बनाते जान कर उसे वैसा करने से इन्कार कर दे, (5) फिर भी बनाकर देने लगे तो उस आहार को न ले। ___ आधाकर्म के साथ-साथ उद्गम के अन्य दोष भी अपने खास परिचित धरों से लेने में लगने की सम्भावना हो।' ग्रासषणा दोष-परिहार 363. से भिक्खू वा 2 जाव- समाणे से ज्ज पुण जाणेज्जा, मंसं वा मच्छं वा भज्जिज्जमाणं पेहाए तेल्लपूयं वा आएसाए उवक्खडिज्जमाणं पेहाए णो खद्ध खद्ध उपसंकमित्त ओभासेज्जा नष्णस्थ गिलाणाए। 364. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे अण्णतरं भोयणजातं पडिगाहेत्ता सुभि सुम्भि भोच्चा दुभि दुभि परिदृवेति / मातिट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा। सुम्भि वा दुग्भि वा सव्वं भुजे ण छड्डए / 365. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे अण्णतरं वा पाणगजायं पडिगाहेत्ता पुष्पं पुष्पं आविइत्ता कसायं कसायं परिवेति / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा / पुष्पं पुप्फे ति वा कसायं कसाए ति वा सव्यमेणं भुजेज्जा, ण किंचि वि परिवेज्जा / 366. से भिक्खू वा 2 बहुपरियाषणं भोयणजायं पबिगाहेत्ता साहम्मिया तत्थ वसंति संभोइया समणुण्णा अपरिहारिया अदूरगया। तेसि अणालोइया अणामंतिया परिदृवेति / मातिढाणं संफासे / गो एवं करेज्जा। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 651 के आधार पर। 2. यहाँ जाव शब्द से गाहावइकुलं से लेकर समाणे तक का पाठ सूत्र 324 के अनुसार समाने / 3. 'मंसं वा...... तेल्लपूयं वा' तक चर्णिकार मान्य पाठान्तर इस प्रकार है-मंसं वा मन्छ वा भन्जि ज्जमाणं पेहाए सक्कुलिं वा पूर्व वा तेल्लापूतं वा / अर्थात मांस और मत्स्य को भूजे जाते हुए देखकर, पूड़ी-पूआ या तेल का पूआ कड़ाही में बनाते देखकर......" 4. णणत्य गिलाणाए के स्थान पर णणस्थ गिसाणिए,......"गिलाणीए, णण्णत्थ गिलाणो आदि पाठा न्तर मिलते हैं। चर्णिकार ने तीसरा पाठान्तर माना है जिसका अर्थ है—ग्लान (रोगी) के सिवाय / 5. 'सुम्मि...' से लेकर छड्डए' तक का पाठान्तर इस प्रकार है-'सुभि ति वा दुमि ति वा सव्वमेयं भुजिज्जा, नो किंचि वि परिविज्जा' सुगन्धित हो या दुर्गन्धित, उस सब आहार का उपभोग कर ले, किंचित भी न परठे-न डाले। 6. अणामंतिया के स्थान पर अणासंसिया पाठ किसी-किसी प्रति में मिलता है। उसका अर्थ है-दूसरों की अपेक्षा किये बिना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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