________________ प्रथम अध्ययन : नवम उद्देशक : सूत्र 363-66 से तमादाए तत्थ गच्छेज्जा 2 [त्ता' से पुवामेव आलोएज्जा आउसंतो समणा ! इमे मे असणे वा 4 बहुपरियावण्णे, तं भुंजह व णं परिभाएह व णं / से सेवं वदंतं परो वरेज्ना--आउसंतो समणा! आहारमेतं असणं वा 4 जावतियं 2' सरति तावतियं 2 भोक्खामो वा पाहामो वा / सव्वमेयं परिसडति सन्वमेयं भोक्खामो वा पाहामो वा। 363. गृहस्थ के घर में साधु या साध्वी के प्रवेश करने पर उसे यह ज्ञात हो जाए कि वहां अपने किसी अतिथि के लिए मांस या मत्स्य भुना जा रहा है, तथा तेल के पुए बनाए जा रहे हैं, इसे देखकर वह अतिशीघ्रता से पास में जाकर याचना न करे। रुग्ण साधु के लिए अत्यावश्यक हो तो किसी पथ्यानुकूल सात्विक आहार की याचना कर सकता है। ___ 364. गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए जाने पर वहाँ से भोजन लेकर जो साधु सुगन्धित (अच्छा-अच्छा) आहार स्वयं खा लेता है और दुर्गन्धित (खराब-खराब) बाहर फेंक देता है, वह माया-स्थान का स्पर्श करता है / उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। अच्छा या खराब, जैसा भी आहार प्राप्त हो, साधु उसका समभावपूर्वक उपभोग करे, उसमें से किचित् भी फेंके नहीं। 365. गृहस्थ के यहाँ पानी के लिए प्रविष्ट जो साधु-साध्वी वहां से यथाप्राप्त जल लेकर वर्ण-गन्ध-युक्त (मधुर) पानी को पी जाते हैं, और कसैला-कसैला पानी फेंक देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। वर्ण-गन्धयुक्त अच्छा या कसैला जैसा भी जल प्राप्त हुआ हो, उसे समभाव से पी लेना चाहिए, उसमें से जरा-सा भी बाहर नहीं डालना चाहिए। 396. भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट साधु-साध्वी उसके यहां से बहुत-सा (आवश्यकता से अधिक) नाना प्रकार का भोजन ले आएं (और उतना खाया न जाए तो) वहाँ जो सार्मिक, सांभोगिक समनोज्ञ तथा अपरिहारिक साधु-साध्वी निकटवर्ती रहते हों, उन्हें पूछे (दिखाए) बिना एवं निमंत्रित किये बिना जो साधु-साध्वी उस आहार को परठ (डाल) देते हैं, वे मायास्थान का स्पर्श करते हैं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। ___ वह साधु उस आहार को लेकर उन सार्मिक, समनोज्ञ साधुओं के पास जाए। वहां जाकर सर्वप्रथम उस आहार को दिखाए और इस प्रकार कहे-आयुष्मान् श्रमणो ! यह चतुर्विध आहार हमारी आवश्यकता से वहुत अधिक है, अतः आप इसका उपभोग करें, और अन्यान्य भिक्षुओं को वितरित कर दें। इस प्रकार कहने पर कोई भिक्षु यों कहे कि --'आयुष्मान् श्रमण! 1. यहाँ 2' का चिन्ह गम धातु की पूर्वकालिक क्रिया के रूप गच्छित्ता का सूचक है। 2. तं भुजह व णं आदि पाठ को व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की है ---भे असणपाणखाइमसाइमे भुजह वा गं परिभाएह वा णं-भुजंध सतमेव परिभाएध अण्णमण्णेसि देह / अर्थात-इस अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का स्वयं उपभोग करो और अन्यान्य साधुओं को दो। 3. यहाँ '2' का चिन्ह पुनरावृत्तिका सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org