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________________ तेरहवां अध्ययन : सूत्र 715-20 346 713. से से परो कार्यसि वणं अण्णतरेणं सत्थजाएणं अच्छिदेज्ज वा विच्छिवेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे / 714. से से परो [कायंसि वणं] अण्णतरेणं सत्थजातेणं अच्छिदित्ता वा विच्छिदित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा जोहरेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं नियमे / 705. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण (धाव) को एक बार पोंछे या बार-बार अच्छी तरह से पोंछकर साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, और न वचन और काया से उसे कराए। 706. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए ब्रण को दबाए या अच्छी तरह मर्दन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए / 710. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर में हुए व्रण के ऊपर तेल, घी या वसा चुपड़े, मसले, लगाए या मर्दन करे तो साधु उभे मन से भी न चाहे और न कराए। 711. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर पर हुए व्रण के लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण आदि विलेपन द्रव्यों का आलेपन-विलेपन करे तो साध उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए। 712 कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को प्रासुक शीतल या उष्ण जल से एक बार या बार-बार धोए तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन और काया से कराए। 713. कदाचित् कोई गृहस्थ, साधु के शरीर पर हुए व्रण को किसी प्रकार के शस्त्र से थोड़ा-सा छेदन करे या विशेष रूप से छेदन करे तो साध उसे मन से भी न चाहे, न ही उसे वचन और काया से कराए। 714. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के शरीर पर हुए व्रण को किसी विशेष शस्त्र से थोडा-सा या विशेष रूप से छेदन करके उसमें से मवाद या रक्त निकाले या उसे साफ करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न ही वचन एवं काया से कराए। विवेचन-सू. 708 से 714 तक सात सूत्रों में गृहस्थ द्वारा साधु को शरीर पर हुए घाव के परिकर्म कराने का मन-वचन-काया से निषेध किया गया है। इस सप्तसूत्री में पहले के 5 सूत्र चरण और शरीरगत परिकर्म निषेधक सूत्रों की तरह है, अन्तिम दो सूत्रों में गृहस्थ से शस्त्र द्वारा ब्रणच्छेदन कराने तथा ब्रणच्छेद करके उसका रक्त एवं मवाद निकाल कर उसे साफ कराने का निषेध है। इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि गृहस्थ द्वारा चिकित्सा कराने का निषेध अहिंसा व अपरिग्रह की साधना को अखंड रखने की दृष्टि से ही किया गया है। इस चिकित्सानिषेध का मूल आशय प्रथम श्रु तस्कन्ध सूत्र 64 में द्रष्टव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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