________________ 168 आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध 462. संयमशील साधु या साध्वी को किसी समय सम शय्या मिले, किसी समय विषम मिले, कभी हवादार निवास स्थान प्राप्त हो, कभी निर्वात (बंद हवा वाला) प्राप्त हो, किसी दिन धूल से भरा उपाश्रय मिले, किसी दिन धूल से रहित स्वच्छ मिले, किसी समय डांसमच्छरों से युक्त मिले, किसी समय डांस-मच्छरों से रहित मिले, इसी तरह कभी जीर्ण-शीर्ण, टुटा-फूटा, गिरा हुआ मकान मिले, या कभी नया सुदृढ़ मकान मिले, कदाचित् उपसर्गयुक्त शय्या मिले, कदाचित् उपसर्ग-रहित मिले / इन सब प्रकार की शय्याओं के प्राप्त होने पर जैसी भी सम-विषम आदि शय्या मिली, उसमें समचित्त होकर रहे, मन में जरा भी खेद या ग्लानि का अनुभव न करे। ____ विवेचन-शय्या के सम्बन्ध में यथालाभ-सन्तोष करे-साधुजीवन में कई उतार-चढ़ाव आते हैं। कभी सुन्दर, सुहावना, हवादार, स्वच्छ, नया, रंग-रोगन किया हुआ मच्छर आदि उपद्रवों से रहित, शान्त, एकान्त स्थान रहने को मिलता है तो कभी किसी गाँव में बिल्कुल रद्दी, टूटा-फूटा, या शर्दी मौसम में चारों ओर से खुला अथवा गर्मी में चारों ओर से बंद, गंदा डांस-मच्छरों से परिपूर्ण, जीर्ण-शीर्ण मकान भी कठिनता से ठहरने को मिल पाता है। ऐसे समय में साधु के धैर्य और समभाव की, कष्ट-सहिष्णुता और तितिक्षा की परीक्षा होती है। वह अच्छे या खराब स्थान के मिलने पर हर्ष या शोक न करे, बल्कि शान्ति और समतापूर्वक निवास करे / यही समभाव की शिक्षा, शय्यैषणा अध्ययन के उपसंहार में है। 'वेगया' आदि पदों के अर्थ-वेगया= किसी दिन या कभी, ससरक्खा धूल से युक्त। सपरिसाडा-जीर्णता से युक्त, गली-सड़ी शय्या / संविज्जमाणाहि=इन तथा प्रकार की शय्या के विद्यमान होने पर भी। पग्गहिततरागं विहारं विहरेज्जा=जैसा भी जो भी कोई निवास स्थान मिल गया है-अच्छा-बुरा, उसी में समचित्त होकर रहे। गिलाएज्जा या वलाएज्जा ? मूल प्रति में गिलाएज्जा पाठ है, जिसका अर्थ होता है--खिन्न या उदास हो / 'वलाएज्जा' पाठ वृत्ति और चणि में है, उसका अर्थ है कुछ भी भला-बुरा न कहे। प्रशस्त शय्या पर राग होने से अंगारदोष और अप्रशस्त पर द्वेष होने से धूमदोष लगता है। 463. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव?हि सहिते सदा जतेज्जासि त्ति बेमि। 463. यही (शय्यैषणा-विवेक) उस भिक्षु या भिक्षुणी का सम्पूर्ण भिक्षुभाव है, कि वह सब प्रकार से ज्ञान-दर्शन-चारित्र और तप के आचार से युक्त होकर सदा समाहित होकर विचरण करने का प्रयत्न करता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। // शय्यैषणा-अध्ययन का तृतीय उद्देशक समाप्त // // द्वितीय शैय्या-अध्ययन सम्पूर्ण / 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 373 के आधार पर. 2. आचारांग चूर्णि मू० पा० 166, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org