________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध का अर्थ है आश्रय / ऐन स्थानों में लोकविरोध तथा प्रवचन-विधात के भय से मलोत्सर्ग आदि नहीं करना चाहिए।' निशीथचूणि में 'आसकरण' आदि पाठ है, वहां अर्थ किया गया है अश्व-शिक्षा देने का स्थान- अश्वकरण है, आदि / बेहाणसठाणेसु मनुष्यों को फांसी आदि पर लटकाने के स्थानों में, गिढपइहाणेसु-जहाँ आत्महत्या करने वाले गिद्ध आदि के भक्षणार्थ रुधिरादि से लिपटे हुए शरीर को उनके सामने डाल कर बैठते हैं / तरु-पगडणटठाणेसु-जहां मरणाभिलाषी लोग अनशन करके तरुवत् पड़े रहते हैं। अथवा पीपल, बड़ आदि वृक्षों से जो मरने का निश्चय करके अपने आपको ऊपर में गिराता है। उसे भी तरुप्रपतन स्थान कहते हैं। मेरुपवडणट्ठाणेसुमेरु का अर्थ है पर्वत / पर्वत से गिरने के स्थानों में। निशीथचणि में 'गिरि' और 'मरु' काअन्तर बताया है, 'जिस पर्वत पर चढ़ने पर प्रपातस्थान दिखाई देता है, वह गिरि, और नहीं दिखाई देता हो, वह मरु / अगणिपक्खंदणट्ठाणेसु = जहाँ व्यक्ति निकट से दौड़कर अग्नि में गिरता है उन स्थानों में। निशीथचूणि में भी 'गिरिपवडण' आदि पाठ मिलता है। आरामाणि उज्जाणाणि = आराम का अर्थ बगीचा, उपवन होता है, परन्तु यहाँ उपलक्षण से आरामागार अर्थ अभीष्ट है, उज्जाण का अर्थ है-'उद्यान' / निशीथचणि में 'उज्जाण' और 'निजाण' (जहां शस्त्र या शास्त्र रखे जाते हों) दोनों प्रकार के स्थलों में, बल्कि उद्यानगृह, उद्यानशाला, निर्याणगृह और निर्याणशाला में भी उच्चार-प्रस्रवण-विसर्जन का दण्ड--- प्रायश्चित्त बताया है। नगर के समीप ऋषियों के ठहरने के स्थान को उद्यान और नगर से निर्गमन का जो स्थान हो, उसे निर्याण कहते हैं। चरियाणि-प्राकार के अन्दर 8 हाथ चौड़ी 1. (क) आचा० चूणि मू० पा० टि० पृ० 233 पर / -'बीयाणि पडिसारेंस वा पडिसारेति वा पडि साडिस्सं ति वा खलमादिसू, काहिंचि वा अच्चणिया कया बीएहि / ' (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक ४१०–आमोकानि = कचवरपुजा, घसा = वृहत्यो भूमिराजयः, भिलुगानि = श्लक्षणभूमिराजयः, विज्जलं == पिच्छल , कडवाणि-- इक्षुजो नलिकादिदण्डकः, प्रगर्ता-महामर्ताः, प्रदुर्गाणि =कुड्यप्रकारादीनि / एतानि च समानि वा विषमाणि भवेयुः, तेष्वात्मसंयम-विराधनासम्भवात् नोच्चारादि कुर्यात् ।'..."मानुषरन्धनादीनि चुल्ल्यादीनि, तथा महिण्यादीनुद्दिश्य यत्र किञ्चित् क्रियते, ते वा यत्र स्थाप्यन्ते, तत्र लोकविरुद्धप्रवचनोपघातभयान्नोच्चारादि कुर्यात् / 2. 'आससिक्खाणं आसकरणं, ऐवं सेसाण वि।' –निशीथ चूणि उ०१२, पृ 348 3. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 410 (ख) 'जे भिक्खू गिरिपवडणाणि वा'......"इत्यादि पाठ निशीथ उ०११ / गिरिभरूणं विसेसो, जत्थ पव्वते आरुढे हि पवायट्ठाणं दीसति सो गिरी भन्नति, अदिस्समाणे मरु / "पिप्पलवडमादी तरु, एते हिंतो जो अप्पाणं मुचति मरणववसितो तं सवडणं भण्णति / पवडण-पक्खंदणाण इमो भेदो--... थाणत्थो उड्ढे उप्प इत्ता जो पडति वस्त्रडेवणे डिंडकवत् एतं पवडणं, जं पुण अदूरतो आधावित्ता पडइ, तं पक्खंदणं / जलजलणपक्खंदणा चउत्थो मरणभेदो। सेसा विसभक्खणादिया अट्रपत्तेयभेदा / --निशीथ चूणि उ०११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org