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________________ षष्ठ अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 190-191 225 ... (4) तीर्थंकरों द्वारा कथित समाधि (इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण)का सेवन-आचरण नहीं करते। (5) ईर्ष्या, द्वेष, कषाय आदि से जलते रहते हैं / __ (6) शास्ता (प्राचार्यादि) द्वारा शास्त्रवचन प्रस्तुत करके अनुशासित किये जाने पर कठोर वचन बोलते हैं। चूर्णिकार 'कामेहि गिला अज्मोक्यणा' का अर्थ करते हैं- शब्दादि कामों में गृद्ध-प्रासक्त एवं अधिकाधिक प्रस्त। 'सरथारमेव परसं वति'-इस पंक्ति के दो अर्थ वृत्तिकार ने सूचित किये हैं / (1) प्राचार्यादि द्वारा शास्त्राभिप्रायपूर्वक प्रेरित किए जाने पर भी उस शास्ता को ही कठोर बोलने लगते हैं-'पाप इस विषय में कुछ नहीं जानते / मैं जितना सूत्रों का अर्थ, शब्द-शास्त्र, गणित या निमित्त (ज्योतिष) जानता हूँ, उस प्रकार से उतना दूसरा कोन चानता है ?' इस प्रकार प्राचार्यादि शास्ता की अवज्ञा करता हुआ वह तीखे शब्द कह डालता है। (2) अथवा शास्ता का अर्थ शासनाधीश तीर्थकर प्रादि भी होता है / अत: यह अर्थ भी सम्भव है कि शास्ता अर्थात् तीर्थकर आदि के लिए भी कठोर शब्द कह देते हैं। शास्त्र के अर्थ करने में या आचरण में कहीं भूल हो जाने पर प्राचार्यादि द्वारा प्रेरित किये जाने पर वे कह देते हैं-तीर्थकर इससे अधिक क्या कहेंगे? वे हमारा गला काटने से बढ़कर क्या कहेंगे? इस प्रकार शास्त्रकारों के सम्बन्ध में भी बे मिथ्या बकवास कर देते हैं। - दोहरी मूर्खता--तीन प्रकार के गौरव के चक्कर में पड़े हुए ऐसे साधक पहली मुर्खता तो यह करते हैं कि भगवद्-उपदिष्ट विनय आदि या अमा, मार्दव आदि मुनिधर्म के उन्नत पथ को छोड़कर सुविधावादी बन जाते हैं, अपनी सुख-सुविधा, मिथ्या प्रतिष्ठा एवं अल्पज्ञता के आधार पर आसान रास्ते पर चलने लगते हैं, जब कोई गुरुजन रोक-ठोक करते हैं, तो कटोर शब्दों में उनका प्रतिवाद करते हैं / फिर दूसरी मूर्खता यह करते हैं कि जो शीलवान उपशान्त और सम्यक् प्रज्ञापूर्वक संयम में पराक्रम कर रहे हैं, उन पर कुशीलवान होने का दोषारोपण करते हैं / अथवा उनके पीछे लोगों के समक्ष 'कुशील' कह कर उनकी निन्दा करते हैं। इस पद का अन्य नय से यह अर्थ भी होता है-स्वयं चारित्र से भ्रष्ट हो गया, यह एक मूर्खता है, दूसरी मूर्खता है-उत्कृष्ट संयमपालकों की निन्दा या बदनामी करना। . तीसरे नय से यह अर्थ भी हो सकता है-किसी ने ऐसे साधकों के समक्ष कहा कि 'ये बड़े शीलवान हैं, उपशान्त हैं, तब उसकी बात का खण्डन करते हुए कहना कि इतने सारे उपकरण रखने वाले इन लोगों में कहाँ शीलवत्ता है या उपशान्तता है ? यह उस निन्दक एवं हीनाचारी की दूसरी मूर्खता है / "णियट्टमाणा०'-कुछ साधक सातागौरव-वंश सुख-सुविधावादी बन कर मुनिधर्म के 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 227 / 2. आचा० शीला० टीका, पत्रांक 227 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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