________________ आचारांग सूत्र-प्रथम धुतस्कन्ध मौलिक संयम-पथ से या संयमी वेष से भी निवस हो जाते हैं, फिर भी वे विनय को नहीं छोड़ते, न ही किसी साधु पर दोषारोपण करते हैं, न कठोर बोलते हैं, अर्थात् वे गर्वस्फीत होकर दोहरी मूर्खता नहीं करते। वे अपने प्राचार में दम्भ, दिखावा नहीं करते, न ही झूठा बहाना बनाकर अपवाद का सेवन करते हैं, किन्तु सरल एवं स्पष्ट हृदय से कहते हैं—'मुनि धर्म का मौलिक आचार तो ऐसा है, किन्तु हम उतना पालन करने में असमर्थ हैं। वे यों नहीं कहते कि 'हम जैसा पालन करते हैं, वैसा ही साध्वाचार है। इस समय दुःषम-काल के प्रभाव से बल, वीर्य प्रादि के ह्रास के कारण मध्यम मार्ग (मध्यम पाचरण) ही श्रेयस्कर है, उत्कृष्ट आचरण का अवसर नहीं है। जैसे सारथी धोड़ों की लगाम न तो अधिक खींचता है और न ही ढीली छोड़ता है, ऐसा करने से घोड़े ठीक चलते हैं, इसी प्रकार का (मुनियों का प्राचार रूप) योग सर्वत्र प्रशस्त होता है।" ... 'णाणवमहा सणसूसिणो'---ज्ञानभ्रष्ट और सम्यग्दर्शन के विध्वंसक इन दोनों प्रकार के लक्षणों से युक्त साधक बहुत खतरनाक होते हैं। वे स्वयं तो चारित्र से भ्रष्ट होते ही हैं, अन्य साधकों को भी अपने दूषण का चेप लगाते हैं, उन्हें भी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से भ्रष्ट करके सन्मार्ग से विचलित कर देते हैं। उनसे सावधान रहने की सूचना यहाँ दी गयो है / .. 'गममाणा'-कुछ साधक ऐसे होते हैं, जो गुरुजनों, तीर्थकरों तथा उनके द्वारा उपदिष्ट ज्ञान दर्शन, चारित्र आदि के प्रति विनीत होते हैं, हर समय वे दबकर, झुककर, नमकर चलते हैं, कई बार वे अपने दोषों को छिपाने या अपराधों के प्रगट हो जाने पर प्रायश्चित्त या दण्ड अधिक न दे दें, इस अभिप्राय से गुरुजनों तथा अन्य साधुओं की प्रशंसा, चापलसी एवं बन्दना करते रहते हैं। पर यह सब होता है--गौरव त्रिपुटी के चक्कर में पड़कर कर्मोदयवश संयमी जीवन को बिगाड़ लेने के कारण / इसलिए उनको नमन आदि क्रियाएँ केवल द्रव्य से होती हैं, भाव से नहीं। ... . "पुछा वेगेणियट्टति-कुछ साधक इन्हीं तीन गौरवों में प्रतिबद्ध होते हैं, असंयमी जीवन-सुख-सुविधापूर्ण जिन्दगी के कारण से। किन्तु ज्यों ही परीषहों का आगमन होता है; त्यों ही वे कायर बनकर संयम से भाग खड़े होते हैं, संयमी वेश भी छोड़ बैठते हैं / ___'अधे संभवता विद्दायमाणा' --कुछ साधक संयम के स्थानों से नीचे गिर जाते हैं, अथवा अविद्या के कारण अधःपतन के पथ पर विद्यमान होते हैं; स्वयं अल्पज्ञानयुक्त होते हुए भी 'हम विद्वान् हैं, इस प्रकार से अपनी मिथ्या श्लाघा (प्रशंसा) करते रहते हैं.। तात्पर्य यह है कि थोड़ा-बहुत जानता हुआ भी ऐसा साधक गर्वोन्नत होकर अपनी डींग हांकता रहता हैं कि 'मैं बहुश्रुत हूं, प्राचार्य को जितना शास्त्रज्ञान है, उतना तो मैंने अल्प समय में ही पढ़ लिया 1.. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 227 / 2. (क) प्राचा० शोला० टीका पत्रांक 228 / जत्थ होइ भग्गो, ओवा सो पर अविवंतो। गतु तत्यचयंतो इमं पहाणं घोसेति // " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org