________________ षष्ठ अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 192-194 227 था। इतना ही नहीं, वह जो साधक उसकी अभिमान भरी बात सुनकर मध्यस्थ या मौन बने रहते हैं, उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाते, अथवा बहुश्र त होने के कारण जो राग-द्वेष और अशान्ति से दूर रहते हैं, उन्हें भी वे कठोर शब्द बोलते हैं। उनमें से किसी के द्वारा किसी गलती के विषय में जरा-सा इशारा करने पर वह भड़क उठता है-पहले अपने कृत्य-अकृत्य को जान लो, तब दूसरों को उपदेश देना।' ___पलियं पगये अदुवा पगये अतहेहि'--गर्वस्फीत साधक उद्धत होकर कठोर शब्द ही नहीं बोलता, वह अन्य दो उपाय भी उन सुविहित मध्यस्थ साधकों को दबाने या लोगों की दृष्टि में गिराने के लिए अपनाता है-(१) उस साधु के पूर्वाश्रम के किसी कर्म.(धंधे या दुश्चरण) को लेकर कहना-तू तो वही लड़कहारा है न ? अथवा तू वही चोर है न ? (२)-अथवा उसकी किसी अंग-विकलता को लेकर मुंह मचकोड़ना आदि व्यर्थ चेष्टाएँ करते हुए अवज्ञा करना। चर्णिकार ने इनके अतिरिक्त एक और अर्थ की कल्पना की है-कत्थन, वर्द्धन और मर्दन-ये तीनों एकार्थक हैं / अतथ्य- (मिथ्या) शब्दों से प्रात्मश्लाघा करना या छोटी सी बात को बढ़ाकर कहना या बार-बार एक ही बात को कहते रहना। बाल का निकृष्टाचरण 192. अधम्मट्ठी तुमं सि णाम बाले आरंभट्ठी अणुवयमाणे, हणमाणे, घातमाणे, हणतो यावि समणुजाणमाणे / घोरे धम्मे उदोरिते। उवेहति णं अणाणाए। एस विसणे वित वियाहिते त्ति बेमि / 193. किमणेण भो जणेण करिस्सामि त्ति मण्णमाणा एवं पेगे वदित्ता मातरं पितरं हेच्चा णातओ य परिग्गहं वीरायमाणा समुठाए अविहिंसा सुव्यता बंता' / पस्त दोणे उप्पाए पटिवतमाणे / वसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति। 194. अहमेगेसि सिलोए पाबए भवति-से समणविम्भंते / समणविम्भते। पासहेगे समण्णागतेहि असमण्णागए णममाणेहिं अणममाणे विरतेहि अविरते दवितेहि अवविते। 1. आचा. शीला० टीका पत्रांक 228 / / 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 228 / 3. आचारांग चूणि मूल पाठ सूत्र 191 का टिप्पण। 4. 'विलद्दे' के बदले पाठान्तर मिलते हैं-'वितड्डे, वितंडे' निरर्थक विवाद वितंडा कहलाता है। वितंडा करने वाले को वितंड कहते हैं। वितड्ड शब्द का अर्थ चूणिकार ने किया है--विवि तहडो .."वितड्डो।"-विविध प्रकार के तर्द (हिंसा के प्रकार) वितड्ड हैं। 5. इसके बदले नागार्जुनसम्मत पाठान्तर इस प्रकार है-'समणा भविस्सामो अणगारा अकिंचणा अपत्ता अपसू अविहिंसगा सुब्बता दंता परदत्तभोइणो पावं कम्म णो करिस्सामो समुठ्ठाए।" हम मुनिधर्म के लिए समुस्थित होकर अनगार, अकिंचन, अपुत्र, अप्रसू, (मातृविहीन) अविहिंसक, सुव्रत, दान्त, परदत्त-भोजी श्रमण बनेंगे, पापकर्म नहीं करेंगे।" 6. चणि में इसके बदले 'समवितते समणवितंते' पाठ स्वीकार करके अर्थ किया हैं---'विविहं तंतो वितंतो, समणत्तणेण विविहं तंतो जं भणितं उपप्पवतति' अर्थात् --विविध तंत या तंत्र (प्रपंच) वितंत है / जिसके श्रमणत्व में विविध तंत्र (प्रपंच) हैं, वह श्रमणवितंत या श्रमण-वितंत्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org