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________________ 128 माचाराम सूत्र-प्रथम प्रतस्कन्ध 195, अभिसमेच्चा पंडिते मेहावी णिदिव्यठे वीरे आगमेणं सदा परिक्कमेज्जासि त्ति बेमि। // चउत्यो उद्देसओ समत्तो // 192. (धर्म से पतित होने वाले अहंकारी साधक को प्राचार्यादि इस प्रकार अनुशासित करते हैं-)तू अधर्मार्थी है, बाल-(अज्ञ) है, आरम्भार्थी है, (प्रारम्भकर्तामों का) अनुमोदक है, (तू इस प्रकार कहता है--) प्राणियों का हनन करो-- (अथवा तू स्वयं प्राणिघात करता है); दूसरों से प्राणिवध कराता है और प्राणियों का वध करने वाले का भी अच्छी तरह अनुमोदन करता है। (भगवान् ने) घोर (संवर-निर्जरारूप दुष्कर-) धर्म का प्रतिपादन किया है, तू अाज्ञा का अतिक्रमण कर उसकी उपेक्षा कर रहा है / . वह (अधर्मार्थी तथा धर्म की उपेक्षा करने वाला) विषण्ण (काम-भोगों की कीचड़ में लिप्त) और वितर्द (हिंसक) कहा गया है। -ऐसा मैं कहता हूँ। 193. प्रो (आत्मन् !) इस स्वार्थी स्वजन का (या मनोज्ञ भोजनादि का) मैं क्या करूमा? यह मानते और कहते हुए (भी) कुछ लोग माता, पिता, ज्ञातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृत्ति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से उत्थित/प्रवजित होते हैं; अहिंसक, सुव्रती और दान्त बन जाते हैं। . (हे शिष्य ! पराक्रम की दृष्टि से) दीन और (पहले सिंह की भाँति प्रवजित होकर अब) पतित बनकर गिरते हुए साधकों को तू देख ! वे विषयों से पीड़ित कायर जन (व्रतों के) विध्वंसक हो जाते हैं। 194. उनमें से कुछ साधकों की श्लाघारूप कीर्ति पाप रूप हो जाती है; (बदनामी का रूप धारण कर लेती है)-"यह श्रमण विभ्रान्त (श्रमण धर्म से भटक गया) है, यह श्रमण विभ्रान्त है।" / (यह भी) देख ! संयम से भ्रष्ट होने वाले कई मुनि उत्कृष्ट प्राचार वालों के बीच शिथिलाचारी, (संयम के प्रति) नत/समर्पित मुनियों के बीच (संयम के प्रति) असमर्पित (सावद्य प्रवृत्ति-परायण), विरत मुनियों के बीच अविरत तथा (चारित्रसम्पन्न) साधुओं के बीच (चारित्रहीन) होते हैं। 195. (इस प्रकार संयम-भ्रष्ट साधकों तथा संयम-भ्रष्टता के परिणामों को) निकट से भली-भाँति जानकर पण्डित, मेधावी, निष्ठितार्थ (कृतार्थ) वीर मुनि सदा मागम (–में विहित साधनापथ) के अनुसार (संयम में) पराक्रम करे / -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-पिछले सूत्रों में श्रुत आदि के मद से उन्मत्त श्रमण की मानसिक एवं वाचिक हीन वृत्तियों का निदर्शन कराया गया है। सूत्रकार ने बड़ी मनोवैज्ञानिक पकड़ से उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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