________________ 234 आचागि सूत्रः- प्रथम श्रुतस्कन्ध कुछ अक्षरों को दुराग्रहपूर्वक पकड़कर वह ज्ञानलव-दुविग्ध व्यक्ति महान् उपशम के कारणभत ज्ञान को भी विपरीत रूप देकर अपनी उद्धतता प्रकट करता हुआ कठोर वचन बोलता है।' . "आणं तं णोति मगामाणा'-- कुछ साधक ज्ञान-समृद्धि के गर्व के अतिरिक्त साता (सुख) के काल्पनिक गौरव की तरंगों में बहकर गुरुजनों के सान्निध्य में वर्षों रहकर भी उनके द्वारा अनुशासित किए जाने पर तपाक से उनकी आज्ञा को ठुकरा देते हैं और कह बैठते हैं- 'शायद यह तीर्थकर की आज्ञा नहीं है। 'गो' शब्द यहाँ प्रांशिक निषेध के अर्थ में प्रयुक्त है। इसलिए 'शायद' शब्द वाक्य के आदि में लगाया गया है। अथवा साता-गौरव की कल्पना में बहकर . साधक अपवाद सूत्रों का आश्रय लेकर चल पड़ता है, जब प्राचार्य उन्हें उत्सगं सूत्रानुसार चलने के लिए प्रेरित करते हैं तो वे कह देते हैं-'यह तीर्थंकर की प्राज्ञा नहीं है।' वस्तुतः ऐसे साधक शारीरिक सुख की तलाश में अपवाद मार्ग का प्राश्रय लेते हैं / 'समणुष्णा जीविसामो' - गुरुजनों द्वारा अविनय-पाशातना और चारित्रभ्रष्टता के दुष्परिणाम बसाये जाने पर वे चुपचाप सुन-समझ लेते हैं, लेकिन उस पर प्राचरण करने की अपेक्षा वे गुरुजनों के समक्ष केवल संकल्प भर कर लेते हैं कि 'हम उत्कृष्ट संयमी जीवन जीएँगे।' प्राशय यह है कि वे आश्वासन देते हैं कि 'हम आपके मनोज्ञ-मनोऽनुकल होकर जीएँगे।' यह एक अर्थ है। दूसरा वैकल्पिक अर्थ यह भी है--'हम समनोज्ञ-लोकसम्मत होकर जीएंगे।' जनता में प्रतिष्ठा पाना और अपना प्रभाव लोगों पर डालना यह यहाँ 'लोकसम्मत' . होने का अर्थ है। इसके लिए मंत्र, यंत्र, तंत्र, ज्योतिष, व्याकरण, अंगस्फुरण आदि शास्त्रों का अध्ययन करके लोक-प्रतिष्ठित होकर जीना ही वे अपने साधु-जीवन का लक्ष्य बना लेते हैं। गुरुजनों द्वारा कही बातों को कानों से सुनकर, जरा-सा सोचकर रह जाते हैं। गौरव-गोषों से ग्रस्त साधक - जो साधक ऋद्धि-गौरव, रस-(पंचेन्द्रिय-विषय-रस) गौरव और साता-गौरव, इन तीनों गौरव दोषों के शिकार बन जाते हैं, वे निम्नोक्त दुर्गुणों से घिर जाते हैं (1) रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग पर चलने के संकल्प के प्रति वे सच्चे नहीं रहते। (2) शब्दादि काम-भोगों में अत्यन्त आसक्त हो जाते हैं। (3) तोनों गौरवों को पाने के लिए अहर्निश लालायित रहते हैं। 1. (क) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 226 के अनुसार / (ख) "अन्यः स्वेच्छारचिताम् अर्थ-विशेषान् अमेण विज्ञाय / . कृत्स्नं वाइ. मयमित इति खावत्यंगानि दणा " ... (उद्धृत)~आचा० शीला• टीका पत्रांक 226 / 2. प्राचा० शीला• टीका पत्रांक 226 / / 3. प्राचा० शीला. टीका पत्रांक 227 के आधार पर / 4. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 227 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org