________________ पंचम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 169 179 (7) सम्यगदर्शन, मोक्ष आदि विधि / ' (8) चित्त की एकाग्रता / (9) प्रशस्त भावना / दशवकालिक में चार प्रकार की समाधि का विस्तृत वर्णन है / 'तमेव सच्च'...इस पंक्ति का प्राशय यह है कि साधक को कदाचित् स्व-पर-समय के ज्ञाता प्राचार्य के अभाव में. सूक्ष्म, व्यवहित (काल से दूर), दूरवर्ती (क्षेत्र से दूर) पदार्थों के विषय में दृष्टान्त, हेतु आदि के न होने से सम्यग्ज्ञान न हो पाए तो भी शंका--विचिकित्सादि छोड़ कर अनन्य श्रद्धापूर्वक यही सोचना चाहिए कि वही एकमात्र सत्य है, निःशंक है, जो राग-द्वेष विजेता तीर्थंकरों ने प्ररूपित किया है। कदाचित् कोई शंका उत्पन्न हो जाए, या पदार्थ को सम्यक् प्रकार से नहीं जाना जा सके तो यह भी सोचना चाहिए बीतरागा हि सर्वज्ञा मिथ्या न अवते क्वचित् / यस्मात्तस्माद् वचस्तेषां तथ्यं भूतार्थदर्शनम् / / मिथ्या भाषण के मुख्य दो कारण हैं----(१) कषाय और (2) अज्ञान / इन दोनों कारणों से रहित बीतराग और सर्वज्ञ कदापि मिथ्या नहीं बोलते / इसलिए उनके वचन तथ्य, सत्य हैं, यथार्थवस्तुस्वरूप के दर्शक हैं। भगवती सूत्र में कांक्षामोहनीय कर्म-निवारण के सन्दर्भ में इसी वाक्य को आधार (आलम्बन) मानकर मन में धारण करने से जिनाज्ञा का पाराधक माना गया है। सम्यक-असम्यक-विवेक 169. सढिस्स णं समणुण्णस्स संपन्वयमाणस्स समियं ति मण्णमाणस्स एगदा समिया होति 1, समियं ति मण्णमाणस्स एगदा असमिया होति 2, असमियं ति मण्णमाणस्स एगया समिया होति 3, असमियं ति मण्णमाणस्स एगया असमिया होति 4, समियं ति मण्णमाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होति उहाए 5, असमियं ति मण्णमाणस्स समिया वा 1. सूत्रकृत 1 / 13 / / 2. द्वात्रि० द्वा० 11 / 3. स्थानांग 2 / 3 (उक्त सभी स्थल देखें अभि० राजेन्द्र भाग 7 पृ. 419-20) 4. अध्ययन 9 में विनयसमा, तपःसमाधि, आचारसमाधि का सुन्दर वर्णन है / 5. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 201 / (ख) अस्थि णं भते ! समणा वि निग्गंधा कखामोहणिज्ज कम्मं वेति ? हंता अत्यि। कहन समणा वि णिगंधा कखामोहणिज्ज कम्मं वेनेति ? गोपमा ! तेसु तेसु नाणंतरेसु चरितंतरेसु० संकिया कंखिया विइगिच्छासमावन्ना, भेयसमावना कलुससमायन्ना, एवं खलु गोयमा ! समणा वि निग्गया कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति / तत्थालंबण! तमेव सच्चं जीसंक जंजिरोहि पवे इयं / / से रण-णं मते ! एवं मणं धारेमाले आणाए आराहए भवति ? ---- एवं मणं धारेमाले आणाए आराहए भवति / " -शतक 1, उ० 3, सूत्र 170 6. 'बया एवं उवह समियाए' यह पाठान्तर चूणि में है। कहता है-इस प्रकार से सम्यक् रूप से पर्या लोचन कर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org