________________ प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 327 13 ___ अतिरिच्छठिन्माओ---केला आदि कई फलों की तरह कई बीज वाली लम्बी फलियाँ तिरछी कटी हुई न हों तो साधु साध्वी नहीं ले सकते। ये द्रव्य मे पूर्ण होते हैं, भाव से पूर्ण होते हैं, नहीं भी। तरुणियं वा छिवाडि--वृत्तिकार व्याख्या करते हैं-तरुणी यानी अपरिपक्व कच्ची छिवाडी-मंग आदि की फली। अभज्जियं के तीन अर्थ फलित होते हैं- (1) अभग्न-बिना कूटा हुआ, (2) बिना पीसा हुआ अथवा बिना दला हुआ, (3) अग्नि में पूंजा हुआ या सेंका हुआ न हो। पिहुयं नये-नये ताजे गेहूँ, मक्का, धान आदि को अग्ति में सेंक कर पोख, होले आदि बनाते हैं, उसे 'पृथुक' कहते हैं। भज्जियं का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-अग्नि में आधी पकी हुयी गेहूँ आदि की बालियाँ। 'मथु' का अर्थ वृत्तिकार ने गेहूं आदि का चूर्ण किया है / दशवकालिक (5268) में भी 'मंयु' शब्द का प्रयोग हुआ है। वहाँ अगस्त्यसिंहस्थविरकृत चूर्णि एवं हारिभद्रीय टीका के अनुसार 'बेर' का चूर्ण तथा जिनदासचूणि के अनुसार बेर, जौ आदि का चूर्ण अर्थ किया गया है। सुश्रुत आदि वैद्यक ग्रन्थों में भी 'मंथु' 'मंथ' शब्द का व्यवहार हुआ है। अन्यतीथिक-गृहस्थ-सहगमन-निषेध ___ 327. से भिक्खू वा 2 गाहावतिकुलं जाव पविसित कामे णो अग्णउत्थिएण वा गार 1 1. आचा० टीका पत्रांक 322 पर से / (क) आचा० टीका पत्रांक 322 / (ख) दशवकालिक अ० 5 उ० 2 मा०-२० / 3. 'भज्जिता मीस जीवा'---आचा० चूणि मू० पा० टिप्पणी पृ० 105 / आचा० टीका पत्रांक 323 / 5. आचा० टीका पत्रांक 324 / 6. आचा० टीका पत्रांक 324 / 7. दसवेआलियं पृ० 250 / 8. सुश्रुत अ० 46/426 / 6. निशीथ सूत्र के द्वितीय उद्देशक (पृ. 118) के निम्नोक्त पाठों की तुलना सू० 327, 328, 326 के साथ कीजिए--"जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएण सद्धि गाहावतिकुलं पिडवातपडियाए णिक्खमति वा पविसति वा...""जे भिक्खू अण्ण उस्थिएणवा मारथिएण वा सपरिहारिओ अपरिहारिएण सद्धि बहिया विहारभूमि वा वियारभूमि वा णिक्खमति वा पविसति वा...."जे भिक्खू अण्णउस्थिएण वा गारथिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएहि सद्धि गामाणुगाम दूतिज्जति / " चणिकार के शब्दों में इसकी व्याख्या इसप्रकार है-"अन्यतीथिका-श्चरक-परिव्राजक शाक्या-ऽऽजीवक-वृद्धभावकप्रभृतयः, गृहस्था मरुमादि-भिक्खायरा / परिहारिओ मूलूत्तरदोसे परिहरति / अहवा मूलूत्तरगुणे घरेति आचरतीत्यर्थः / तत्प्रतिपक्षभूतो अपरिहारी, ते य अण्ण तित्थियगिहत्या। णो कप्पति भिक्खस्स गिहिणा अहवा वि अण्णतित्थीणं / परिहारियस्स अपरिहारिएण सिद्धि पविसिउं जे॥" –अर्थात्-अन्यतीथिकों से यहाँ आशय है-चरक, परिव्राजक, शाक्य (बौद्ध) आजीवक (गोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org