________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 63-64 . विवेचन--सूत्र 41 में 'गुरग' को 'आवर्त' बताया है / यहाँ उसी संदर्भ में गुण को 'मुल स्थान' कहा है। पांच इन्द्रियों के विषय 'गुण' हैं / ' इष्ट विषय के प्रति राग और अनिष्ट विषय के प्रति द्वेष की भावना जाग्रत होती है। राग-द्वेष की जागति से कषाय की वृद्धि होती है / और बढ़े हुए कषाय ही जन्म-मरण के मूल को सींचते हैं / जैसा कहा है-- चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचति मूलाई पुणभवस्स* -ये चारों कषाय पुनर्भव-जन्म-मरण की जड़ को सींचते हैं। टीकाकार ने 'मूल' शब्द से कई अभिप्राय स्पष्ट किये हैं—मूल-चार गतिरूप संसार / पाठ प्रकार के कर्म तथा मोहनीय कर्म / इन सबका सार यही है कि शब्द आदि विषयों में प्रासक्त होना ही संसार को वृद्धि का कर्म-बन्धन का कारण है / विषयासक्त पुरुष की मनोवृत्ति ममत्व-प्रधान रहती है। उसो का यहाँ निदर्शन कराया गया है / वह माता-पिता आदि सभी सम्बन्धियों व अपनी सम्पत्ति के साथ ममत्व का दृढ़ बंधन बांध लेता है / ममत्व से प्रमाद बढ़ता है। ममत्व और प्रमाद--ये दो भूत उसके सिर पर सवार हो जाते हैं, तब वह अपनी उद्दाम इच्छाओं की पूर्ति के लिए रात-दिन प्रयत्न करता है, हर प्रकार के अनुचित उपाय अपनाता है, जोड़-तोड़ करता है / चोर, हत्यारा और दुस्साहसी बन जाता है। उसकी वृति संरक्षक नहीं, आक्रामक बन जाती है। यह सब अनियंत्रित गुणाथिता--विषयेच्छा का दुष्परिणाम है / अशरणता-परिबोध 64. अप्पं च खलु आउं इहमेगेहि माणवाणं / तं जहा-सोतपण्णाहिं परिहायमाहिं चक्खुपण्णाणेहि परिहायमाहि घाणपण्णाणेहि परिहायमाणेहि रसपण्णाणेहि परिहायमाहि फासपण्णाणेहि परिहायमाहिं। अभिकंतं च खलु वयं संपेहाए तओ से एगया मूढभावं जणयंति / जेहिं वा सद्धि संवसति ते व णं एगया णियगा पुब्धि परिवदंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिवदेज्जा। णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि तेसि णालं ताणाए वा सरणाए वा / से ण हासाए, ण किड्डाए, ण रतीए, ण विभूसाए / 64. इस संसार में कुछ-एक मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है। जैसे-श्रोत्रप्रज्ञान के परिहीन (सर्वथा दुर्बल) हो जाने पर, इसी प्रकार चक्षु-प्रज्ञान के परिहीन होने पर, घ्राण-प्रज्ञान के परिहीन होने पर, रस-प्रज्ञान के परिहीन होने पर, स्पर्शप्रज्ञान के परिहीन होने पर (वह अल्प आयु में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है)। 1. प्राचा० शी टीका पत्रांक 89 2. दशवकालिक 8 / 40 3. प्राचा. जी. टीका पत्रांक 90 / 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org