________________ वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 422-25 127 उच्चाषयं मणं णियच्छेज्जा-एते खलु अगणिकायं उज्जालेंतु वा मा वा, उज्जालेंतु, पज्जालेतु बा, मा वा पज्जालेंतु, विज्झातु वा, मा वा विज्झायेंतु / अह भिक्खूणं पुव्योवविट्ठा 4 जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 424. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावतोहिं सद्धि संवसमाणस्स / इह खसु गाहावतिस्स कुंडले वा गुणे वा मणी वा मोत्तिए वा हिरणे वा सुवण्णे वा कडगाणि बा तुडियाणि वा तिसरगाणि या पालंमाणि वा हारे वा अखहारे वा एगावली वा मुत्तावली वा कणगावली वा रयणावली वा तरुणियं' वा कुमारि अलंकियविभूसियं पेहाए अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियच्छेज्जा, एरिसिया बाऽऽसी ण वा एरिसिया इति वा गं बूया, इति वा गं मणं साएज्जा। अह भिक्खूणं पुन्योधविट्ठा 4 जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 425. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावतीहि सद्धि संवसमाणस्स / इह खलु गाहावतिणोओ वा गाहावतिधूयाओ वा गाहावतिसुग्णाओ वा गाहावतिधातीओ वा गाहावतिबासीओ वा गाहावतिकम्मकरीमो वा, तासि च णं एवं वृत्तपुव्वं भवति–जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उबरता मेहुणातो धम्मातो णो खलु एतेसि कप्पति मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टित्तए, जाय खलु एतेसि सद्धि मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टेज्जा पुत्तं खलु सा लभेज्जा ओस्सि तेयास्स बच्चस्सि जसस्सि संपराधियं आलोयवरिसणिज्ज / एयप्पगारं णिग्धोसं सोच्चा णिसम्मा तासि च णं अण्णतरी सड्ढी तं तस्सि भिक्खं मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टावेज्जा / मह भिक्खणं पुव्योवदिट्ठा 4 जं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए पो ठाणं वा 3 चेतेज्जा। 1. चूर्णिकार 'तरुणियं वा कुमारि' का तात्पर्य बताते हैं—'तरुणिम कुमारि मज्झिमवयं वा' अर्थात् युवती, तरुण कुमारी, अथवा मध्यमवयस्का / 2. 'एरिसिया वाऽसी ण वा' के बदले पाठान्तर है-—'एरिसिगा वा सा, णो वा' / अर्थ समान है। इस पंक्ति की व्याख्या चूर्णिकार यों करते हैं—एरिसिगा मम भोतिगा मासि, ण वा एरिसिगा, भणिज्ज वा गं मए समाणे संचिक्खाहि / मणं माएज्जा कहं मम एताए सदि मेलतो होज्जा, अहवा सा कण्णा ताहे चितेति-एस पम पड़प्पज्जेज्जा।' अर्थात-मेरी भार्या ऐसी थी, अथवा ऐसी नहीं थी, अथवा उसे कहे कि तू मेरे साथ रहा / मन में आकांक्षा करे कि मेरा इसके साथ कैसे मेल हो; अथवा वह कन्या उसके लिए मन में विचार करे कि 'यह (साधु) मुझे स्वीकार कर ले। 3. यहाँ ,जाव' शब्द से 'भगवंसो' से लेकर 'उवरता' तक का समग्र पाठ सू० 360 के अनुसार समझे। 4. 'जा य बलु एतेसि' आदि पाठ की व्याख्या चूर्णिकार यों करते हैं----जा एतेहि सदि मेहगं भपुत्ता पसयति, धूयवियाइणी पूत्तं पुत्तवियाइणी, ओस्सि-ओरालसरीरं, तपस्सी-सुरः वचसिम् दीप्तिवान्, जसंसी-लोकपसंस, संपराइयं पराक्रमः, आलोगदरिसणिज्ज- दरिसणादेव मणप्रीतिजणणं / अर्थात--जो नारी इनके साथ मैथुन क्रीड़ा करती है, वह अपुत्रा संतान प्रसव करती है, पुत्राभिलाविधी पुत्रवती हो जाती है। वह पुत्र ओस्सि-विशाल शरीर वाला, तेवस्ति-शूरवीर, वच्चंतिदीप्तिमान्, जसंसी-लोक प्रशंसित या प्रसिद्ध, संपराइयं-पराक्रमी, भालोगवरिसनि -देखते ही मन में प्रीति पैदा करने वाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org