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________________ 128 आचारांग सूत्र-द्वितीय भ तस्कन्ध 420. वह भिक्षु या भिक्षुणी जिस उपाश्रय को स्त्रियों से, बालकों से, क्षुद्र प्राणियों से या पशुओं से युक्त जाने तथा पशुओं या गृहस्थ के खाने-पीने योग्य पदाचों से जो भरा हो तो इस प्रकार के उपाश्रय में साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करे। 421. साधु का गृहपतिकुल के साथ (एक ही मकान में) निवास कर्मबन्ध का उपादान कारण है / गृहस्थ परिवार के साथ निवास करते हुए हाथ पैर आदि का कदाचित् स्तम्भन (शून्यता या जड़ता) हो जाए अथवा सूजन हो जाए, विशूचिका (अतिसार) या वमन की व्याधि उत्पन्न हो जाए, अथवा अन्य कोई ज्वर, शूल, पीड़ा, दुःख या रोगातंक पैदा हो जाए, ऐसी स्थिति में वह गृहस्थ करुणाभाव से प्रेरित होकर उस भिक्षु के शरीर पर तेल, घी नवनीत, अथवा वसा में मालिश करेगा या चुपड़ेगा। फिर उसे प्रासुक शीतल जल या उष्ण जल से स्नान कराएगा, अथवा कल्क, लोध, वर्णक, चूर्ण या पद्म से एक बार घिसेगा, बार-बार जोर से घिसंगा, शरीर पर लेप करेगा, अथवा शरीर का मैल दूर करने के लिए उबटन करेगा। तदन्तर प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से एक बार धोएगा या बार-बार धोएगा मल-मलकर नहलाएगा, अथवा मस्तक पर पानी छोंटेगा, तथा अरणी की लकड़ी को परस्पर रगड़ कर अग्नि उज्ज्वलित-प्रज्वलित करेगा। अग्नि को सुलगाकर और अधिक प्रज्वलित करके साधु के शरीर को थोड़ा अधिक तपायेगा।। इस तरह गृहस्थकुल के साथ उसके घर में ठहरने से अनेक दोषों की संभावना देखकर तीर्थंकर प्रभु ने भिक्षु के लिए पहले से ही ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और उपदेश दिया है कि वह ऐसे गृहस्थकुलसंसक्त मकान में न ठहरे, न ही कायोत्सर्गादि क्रियाएं करे। 422. साधु के लिए गृहस्थ-संसर्गयुक्त उपाश्रय में निवास करना अनेक दोषों का कारण है क्योंकि उसमें गृहपति, उसकी पत्नी, पुत्रियाँ, पुत्रवधूएं, दास-दासियाँ- नौकर-नौकरानियाँ आदि रहती हैं / कदाचित् वे परस्पर एक-दूसरे को कटु वचन कहें, मारें-पीटें, बंद करें या उपद्रव करें। उन्हें ऐसा करते देख भिक्षु के मन में ऊंचे-नीचे भाव आ सकते हैं / कि ये परस्पर एक दूसरे को भला-बुरा कहें, मार-पीटें या उपद्रव आदि करें या परस्पर लड़ाई-झगड़ा, मारपीट, उपद्रव आदि न करें। इसीलिए तीर्थंकरों ने पहले से ही साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, हेतु, कारण या उपदेश दिया है कि वह गृहस्थसंसर्गयुक्त उपाश्रय में न ठहरे, न कायोत्सर्गादि करे। 423. गृहस्थों के साथ एक मकान में साधु का निवास करना इसलिए भी कर्मबन्ध का कारण है कि उसमें गृहस्वामी अपने प्रयोजन के लिए अग्निकाय को उज्ज्वलित-प्रज्वलित करेगा, प्रज्वलित अग्नि को बुझाएगा। वहां रहते हुए भिक्षु के मन में कदाचित् ऊंचे-नीचे परिणाम आ सकते हैं कि ये गृहस्थ अग्नि को उज्वलित करे, अथवा उज्वलित न करें, तया ये अग्नि को प्रज्वलित करें अथवा प्रज्वलित न करें, अग्नि को बुझा दें या न बुझाएं। इसीलिए तीर्थकरों ने पहले से साधु के लिए ऐसी प्रतिज्ञा बताई है, यह हेतु, कारण और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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