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________________ 304 मावारांग सूत्र-प्रथम भुतस्कम्घ 318. वित्तिच्छेदं वज्जेतो तेसऽपत्तियं परिहरंतो। ____मंदं परक्कमे भगवं अहिंसमाणो धासमेसिस्था / / 105 / / 319. अवि सूइयं व सुक्कं वा सोयपिडं पुराणकुम्मा। अदु बक्क पुलागं वा लद्धपिडे अलद्धए दविए // 106 / / 310. भगवान ग्रीष्म ऋतु में प्रातापना लेते थे। उकडू पासन से सूर्य के ताप के सामने मुख करके बैठते थे। और वे प्रायः रूसे आहार को दो-कोद्रव व बेर आदि का चूर्ण, तथा उड़द आदि से शरीर-निर्वाह करते थे / / 97 / / / 311. भगवान ने इन तीनों का सेवन करके पाठ मास तक जीवन यापन किया। कभी-कभी भगवान ने अर्ध मास (पक्ष) या मास भर तक पानी नहीं पिया / / 98 // 312. उन्होंने कभी-कभी दो महीने से अधिक तथा छह महीने तक भी पानी नहीं पिया। वे रात भर जागृत रहते, किन्तु मन में नींद लेने का संकल्प नहीं होता था। कभी-कभी वे वासी (रस-अविकृत) भोजन भी करते थे / / 99 // 313. वे कभी बेले (दो दिन के उपवास) के अनन्तर, कभी तेले (अट्ठम), कभी चोले (दशम) और कभी पंचोले (द्वादश) के अनन्तर भोजन (पारणा) करते थे / भोजन के प्रति प्रतिज्ञा रहित (प्राग्रह-मुक्त) होकर वे (तप) समाधि का प्रेक्षण (पर्यालोचन) करते थे / / 10 // 314. बे भगवान महावीर (पाहार के दोषों को जानकर स्वयं पाप (ग्रारम्भसमारंभ) नहीं करते थे, दूसरों से भी पाप नहीं करवाते थे और न पाप करने का अनुमोदन करते थे / / 101 // 315. भगवान ग्राम या नगर में प्रवेश करके दूसरे (गृहस्थों) के लिए बने हए भोजन की एषणा करते थे। सुविशुद्ध आहार ग्रहण करके भगवान आयतयोग (संयत-विधि) से उसका सेवन करते थे / / 10 / / 316-317-318 भिक्षाटन के समय, रास्ते में क्षुधा से पीड़ित कौनों तथा पानी पीने के लिए प्रातुर अन्य प्राणियों को लगातार बैठे हुए देखकर अथवा ब्राह्मण, श्रमण, गाँव के भिखारी या अतिथि, चाण्डाल, बिल्ली या कुत्ते को आगे मार्ग में बैठा देखकर उनकी आजीविका का विच्छेद न हो, तथा उनके मन में अप्रीति (द्वष) या अप्रतीति (भय) उत्पन्न न हो, इसे ध्यान में रखकर भगवान धीरे-धीरे चलते थे किसी 1 इसके बदले 'तेस्सऽपत्तियं' 'तेसि अपसियं' पाठान्तर मिलते हैं। चूणि कार इसके बदले 'अवि सूचितं वा सुक्क वा....पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं- "सूचितं णाम कुसणितं'.---अर्थात्-सूचितं का अर्थ है-दही के साथ भात मिलाकर करबा बनाया हुआ / यत्तिकार शीलांकाचार्य 'सूइयं' पाठ मानकर अर्थ करते हैं-सूइयं ति दध्यादिना भक्तमाद्रीकृतमपि / " अर्थात दही आदि से भात को गीला करके भी ... / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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