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________________ वम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : 310-319 333 312. अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा अपिवित्था / राओबरात अपडिणे अण्णागिलायमेगता भुजे / / 99 / / 313. छ?ण एगया भुजे, अदुवा अट्ठमण दसमेण / ' दुवालसमेण एगदा भुजे पेहमाणे समाहि अपडिण्णे ||10011 314. णच्चाण से महावीरे णो वि य पावगं सयमकासी। अण्णेहि वि ण कारित्था कीरत पि जाणुजाणिस्था / / 101 / / 315. गामं पविस्स णगर वा घासमेसे' कडं पराए। सुविसुद्धमेसिया भगवं आयतजोगताए सेवित्था // 10 // * 313. अदु वायसा दिगिछत्ता जे अण्णे रसेसिणो सत्ता / घासेसणाए चिठ्ठते स्ययं णिवतिते य पेहाए / / 103 / / 317. अदु माहणं व समण वा गापिंडोलगं च अतिहि वा / सोवाग मूसियारि वा कुक्कुर वा वि विठित पुरतो // 104 / / 1. इसके बदले 'अपिवित्थ', 'पिदत्य', 'अप्प विहरित्या', अपवित्ता', 'अपि विहरित्था, प्रादि पाठान्तर मिलते हैं / इनका इथ क्रमश यों है नहीं पिया, पिया, अल्प दिहार किया, अल्पाहारी रहे बिना पिये विहार पिया। 2. इसके बदले 'अण्ण (गण) गिलागमे, 'अण्ण गिलाणमे' 'अन्नइलायमे' 'अग्न इलात' 'एगता भुजे', 'अन्नगिलाय', आदि पाठान्तर मिलते हैं / चूणिकार ने "अन्न इलात एगता भुजे" पाठान्तर मानकर अर्थ किया है-'अन्नमेव गिलाण अन्न गिलाण दोसीणं'- अर्थात्-जो अन्न ही ग्लान-सत्वहीन, बासी और नीरस हो गया है, उस कई रात्रियों के अन्न को 'अन्नग्लान' यहते हैं। उसी का कभीकभी भगवान सेवन करते थे। वृत्तिकार ने "अन्नगिलाय' पाठ मानकर अर्थ किया है—पर्युषितम् ---- वासी अन्न। 3. 'पेहमाणे समाहि' का अर्थ चणिकार करते हैं-समाधिमिति तवसमाधी, णेवाणसमाधी, त पेहमाणे / ' समाधि का अर्थ है-तपः समाधि या निर्वाणसमाधि, उसका पर्यालोचन करते हुए। 4 इसके बदले---चूणि में पाठान्तर है-'अएणेहि ण कारित्या, की माण पि नाणुमोतित्था', अर्थात्---- दूसरों से पाप नहीं कराते थे, पाप करते हुए या करने वाले का अनुमोदन नहीं करते थे। 5. इसके बदले पाठान्तर है- 'घासमेसे कर पराए', 'घासमात कडं परट्ठाए' (चूणि) चूणिकार सम्मत पाठान्तर का अर्थ -- 'घासमाहारं अद भक्खण-अर्थात् - भगवान दूसरों (गृहस्थों) के लिए बनाए हए आहार का सेवन करते थे। 6. चूणि में पाठान्तर है-~-'सुविसुद्ध एसिया भगवं आयतजोगता गवेसिस्था'-भगवान आहार की सुविशुद्ध एषणा क ते थे, तथा आयतयोगता की अन्वेषणा करते थे। . 7. 'विगिछत्ता' का अर्थ चणिकार के शब्दों में --- दिनिछा हा ताए अत्तानिया वा।' अर्थात दिन्छा क्षधा का नाम है, उससे बात --पीड़ित, अथवा तृषित -प्यासे / 8. 'समयं णिवतिते के बदले पाठान्तर है 'संथरे (ड) गिवतिते' प्रथं चूणिकार ने किया है-संथडा. सततं संणिवतिया---निरन्तर बैठे देखकर। 2. इनके बदले 'वा विठित' पाठान्तर स्वीकार करके चणि कार ने अर्थ किया है-विहितं उपविष्ट मित्यर्थः / अर्थात् = बैठे हुए। 69 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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