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________________ 332 आचारांग सूत्र---प्रथम श्रुतस्कन्ध 309 महामाहन भगवान शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों से विरत होकर विचरण करते थे / वे बहुत नहीं बोलते थे। कभी-कभी भगवान शिशिर ऋतु में छाया में स्थित होकर ध्यान करते थे // 16 // विवेचन-ऊनोदरी तप का सहज अभ्यास-भोजन सामने आने पर मन को रोकना वहत कठिन कार्य है / साधारणतया मनुष्य तभी अल्पाहार करता है, जब वह रोग से घिर जाता है. अन्यथा स्वादिष्ट मनोज्ञ भोजन स्वाद वश वह अधिक ही खाता है। परन्तु भगवान को वातादिजनित कोई रोग नहीं था. उनका स्वास्थ्य हर दृष्टि से उत्तम व नीरोग था। स्वादिष्ट भोजन भी उन्हें प्राप्त हो सकता था, किन्तु साधना की दृष्ट से किसी प्रकार का स्वाद लिए बिना वे अल्पाहार करते थे।' चिकित्सा में अगचि-रोग दो प्रकार के होते हैं—वातादि के क्षुब्ध होने से उत्पन्न तथा अागन्तुक / साधारण मनुष्यों की तरह भगवान के शरीर में वातादि से उत्पन्न खांसी, दमा, पेट-दर्द आदि कोई देहज रोग नहीं होते, शस्त्रप्रहारादि से जनित आगन्तुक रोग हो सकते हैं, परन्तु वे दोनों ही प्रकार के रोगों की चिकित्सा के प्रति उदासीन थे / अनार्य देश में कुत्तों के काटने, मनुष्यों के द्वारा पीटने ग्रादि से प्रागन्तुक रोगों के शमन के लिए भी वे द्रव्यौषधि का उपयोग नहीं करना चाहते थे। हाँ, असातावेदनीय आदि कर्मों के उदय से निष्पन्न भाव-रोगों की चिकित्सा में उनका दृढ विश्वास था। शरीर-परिकर्म से विरत-दीक्षा लेते ही भगवान ने शरीर के व्युत्सर्ग का संकल्प कर लिया था, तदनुसार वे शरीर की सेवा-शुश्रूषा, मंडन, विभूषा, साज-सज्जा, सार-संभाल आदि से मुक्त रहते थे, वे ग्रात्मा के लिए समर्पित हो गए थे, इसलिए शरीर को एक तरह से विस्मृत करके साधना में लीन रहते थे। यही कारण है कि वमन, विरेचन, मर्दन आदि से वे बिलकुल उदासीन थे, शब्दादि विषयों से भी वे विरक्त रहते थे, मन, वचन, काया की प्रवृत्तियां भी वे अति अल्प करते थे। तप एवं आहारचर्या 310. आयावइ य गिम्हाणं अच्छति उक्कुडए अभितावे / अदु जावइत्थ लहेणं ओयण-मथु-कुम्मासेणं / / 97 / 311. एताणि तिण्णि पडिसेवे अट्ठ मासे अ जाबए भगवं / / अपिइत्थ एगदा भगवं अद्धमा अदुवा मासं पि / / 981 1. आचा० शीला० टीका पत्र 312 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्र 312 / 3. आचा० शीला० टोका पत्रांक 312-313 / 4. चूर्णिकार ने इसके बदले---"आयावयति गिम्हासु उक्कुडयासरोण अभिमुहवाते ---उण्हे स्वखे य वायते / '' अर्थात् == ग्रीष्म ऋतु में उकडू अासन से बैठकर भगवान गर्म लू या रूखी जैसी भी हवा होती, उसके अभिमुख होकर प्रातापना लेते थे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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