________________ 331 नवम मध्ययन ! चतुर्ष उद्देशक : सूत्र 307-3.. युद्ध में विजयी बनकर पार पा लेता है, वैसे ही भगवान महावीर परीषह-उपसर्गों की सेना का सामना करने में अड़े रहे और पार पाकर ही पारगामी हुए।' मंसाणि छिन्गपुवाई ......'-इस पंक्ति का अर्थ वृत्तिकार करते हैं-एक बार पहले भगवान के शरीर को पकड़कर उनका मांस काट लिया था / परन्तु-चूर्णिकार इसकी व्याख्या यों करते हैं-'दूसरे लोगों ने पहले भगवान के शरीर का मांस (या उनकी मूछ) काट लिया, किन्तु कई सज्जन (भगवान के प्रशंसक) इसके लिए उन दुष्टों को रोकते-धिक्कारते थे।' // तृतीय उद्देशक समाप्त / / ... चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक [भगवान महावीर का उग्र तपश्चरण] अचिकिस्सा-अपरिकर्म 307. ओमोदरियं चाएति अपुढे वि भगवं रोगेहिं / पुढेंब से अपुढे वा णो से सातिज्जती तेइच्छं॥९४॥ 308. संसोहणं च वमणं च गायभंगणं सिणाणं च। संबाहणं न से कप्पे दंतपक्खालणं परिष्णाए // 15 // 309. विरते य गामघम्मेहि रीयति माहणे अबहुवादी। सिसिरमि एगवा भगवं छायाए' माति आसी य / / 96 // 307 भगवान रोगों से आक्रान्त न होने पर भी अवमौदर्य (अल्पहार) तप करते थे। वे रोग से स्पृष्ट हों या अस्पृष्ट, चिकित्सा में रुचि नहीं रखते थे / / 14 / / 308 वे शरीर को प्रात्मा से अन्य जानकर विरेचन, वमन, तैलमर्दन, स्नान और मर्दन (पगचपी) आदि परिकर्म नहीं करते थे, तथा दन्तप्रक्षालन भी नहीं करते थे / / 9 / / 1. प्राचा. शीलाटीका पत्रांक 311 / 2. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 311, (ख) आचारांग पूणि-मूलपाठ टिप्पण सू० 303 का देखें। 3. चूणिकार ने 'ओमोयरिय चाएति' पाठान्तर मानकर अर्थ किया है-"चाएति--- अहियासेति / ".... अवमौदर्य को सहते थे या अवमोदर्य का अभ्यास था। 4. इस पंक्ति का अर्थ चर्णिकार ने किया है-"वातातिएहि शेगेहि अपुठो वि ओमोदरिम कृतवां।" अर्थात् -वातादिजन्य रोगों से अस्पृष्ट होते हुए भी भगवान ऊनोदरी तप करते थे। 5. 'परिणाए' का अर्थ चूणिकार के शब्दों में-'परिणाते-~-जाणित्त ण करेति / " / 6. चूर्णिकार ने इसके बदले 'चावीए प्राति आसोता,' पाठान्तर मानकर अर्थ किया है-छायाए ण मातवं गच्छति तत्थेव झाति यासित्ति अतिक्कंतकाले ।"-भगवान छाया से धूप में नहीं जाते थे, वहीं ध्यान करते थे, काल व्यतीत हो जाने पर फिर वे जाते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org