________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध यह (साधु के लिए सर्वथा) अकरणीय है यह जानकर (संखडि में न जाए) / संखडि में जाना कर्मों के आस्रव का कारण है, अथवा दोषों का आयतन (स्थान) है। इसमें जाने से कर्मों का संचय बढ़ता जाता है। पूर्वोक्त दोष उत्पन्न होते हैं, इसलिए संयमी निर्ग्रन्थ पूर्व-संखडि या पश्चात्-संखडि को संयम खण्डित करने वाली जानकर संखडि की अपेक्षा से उसमें जाने का विचार भी न करे। ___ 341. से भिवखू वा 2 अण्णतरं संखडि सोच्चा णिसम्म संपहावति' उस्सुयभूतेणं अप्पाणेणं, धुवा संखडी / णो संचाएति तस्थ इतराइतरेहि कुलेहि सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवातं पडिगाहेत्ता आहारं आहारत्तए / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा / से तत्थ कालेण अणुपविसित्ता तस्थितराइतरेहिं कुलेहि सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवातं पडिगाहेत्ता आहारं आहारज्जा। 341. वह भिक्षु या भिक्षुणी पूर्व-संखडि या पश्चात्-संखडि में से किसी एक के विषय में सुनकर मन में विचार करके स्वयं बहुत उत्सुक मन से (संखडिवाले गांव की ओर) जल्दीजल्दी जाता है / क्योंकि वहाँ निश्चित्त ही संखडि है। [मुझे गांव में भिक्षार्थ भ्रमण करते देख 'संखडि वाला अवश्य ही आहार के लिए प्रार्थना करेगा, इस आशय से] वह भिक्षु उस संखडि वाले ग्राम में संखडि से रहित दूसरे-दूसरे घरों से एषणीय तथा रजोहरणादि वेश से लब्ध उत्पादनादि दोषरहित भिक्षा से प्राप्त आहार को ग्रहण करके वहीं उसका उपभोग नहीं कर सकेगा। क्योंकि वह संखडि के भोजन-पानी के लिए लालायित है / (ऐसी स्थिति में) वह भिक्ष मातृस्थान (कपट) का स्पर्श करता है / अतः साधु ऐसा कार्य न करे। वह भिक्षु उस संखडि वाले ग्राम में अक्सर देखकर प्रवेश करे, संखडि वाले घर के सिवाय दूसरे-दूसरे घरों से सामुदायिक भिक्षा से प्राप्त एषणीय तथा केवल वेष से प्राप्तधात्रीपिण्नादि दोषरहित पिण्डपात (आहार) को ग्रहण करके उसका सेवन कर ले। 342. से भिक्खु वा 2 से ज्ज पुण जाणेज्जा गाम वा जाव रायहाणि वा, इमंसि खलु गामंसि वा जाव रायहाणिसि वा संखडी सिया, तं पियाई गामं वा जाव रायहाणि वा संखडि संखडिपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। / केवलो बूया-आयाणमेतं / 1. किसी किसी प्रति में इसके बदले 'परिहावइ' पाठ है। अर्थ समान है / चूर्णिकार ने अर्थ किया है 'समन्ततो धावति, चारों ओर दौड़ता है। 2. इसका अर्थ चूर्णिकार करते हैं-~-इतराइतराई- उच्चणीयाणि अर्थात दूसरे उच्चनीच कूल / 3. इसका अर्थ चूर्णि में किया गया है-- समुदाणजातं सामुदाणियं / समुदान-भिक्षा से निष्पन्न सामु दायिक है। 4-5 यहाँ जाब शब्द सूत्र 328 में अंकित समग्र पाठ का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org