________________ तथागत बुद्ध भी पानी में जीव नहीं मानते थे। वैदिक परम्परा में "चउसठ्ठीए मट्टियाहि स पहाति" वह चौसठ बार मिट्टी का स्नान करता है। पंचाग्नि तप तापने में साधना की उत्कृष्टता मानी जाती, विविध प्रकार से वायुकाय के जीवों की विराधना की जाती और कन्द-मूल-फल-फूल के प्राहार को निर्दोष आहार माना जाता / वैदिक-परम्परा के ऋषिगण गह का परित्याग कर पत्नी के साथ जंगल में रहते थे। वे गह-त्याग तो करते थे पर पत्नी-त्याग नहीं। __ भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा कि श्रमण को स्त्री-संग का पूर्ण त्याग करना चाहिये। क्योंकि स्त्री-संग से नाना प्रकार के प्रपंच करने पड़ते हैं। जिसमें केवल बन्धन ही बन्धन है / अतः सन्तों को ग्रहत्याग ही नहीं सर्व-परित्यागी होना चाहिये / अहिंसा महावत के पूर्ण रूप से पालन करने से अन्य सभी महावतों का पालन सहज संभव था। श्रमण किसी भी प्रकार की हिंसा न स्वयं करे और न दूसरों को करने के लिए प्रेरित करे और न हिंसा करने वालों का अनुमोदन ही करे----मन, वचन और काया से। अहिंसा महावत की सुरक्षा के लिये रात्रि-भोजन का त्याग अनिवार्य है। श्रमण को भिक्षा में जो भी वस्तु उपलब्ध होती है वह उसे समभावपूर्वक ग्रहण करता था। परीषहों को ग्रहण करते समय उसके मन में किंचिन्मात्र भी असमाधि नहीं होती थी। उसके मन में आनन्द की मियाँ तरंगित होती रहती थीं। शारीरिक कष्ट का असर मन पर नहीं होता। क्योंकि ध्यानाग्नि से वह कषायों को जला देता था। भगवान महावीर का मुख्य लक्ष्य शरीर-शुद्धि नहीं प्रात्म-शुद्धि है। जिसके जीवन में अहिंसा की निर्मल धारा प्रवाहित हो रही है उसे ही आर्य कहा गया है और जिसके जीवन में हिंसा की प्रधानता है वह अनार्य है। प्राचारांगसूत्र में ऐसे अनेक शब्द व्यवहृत हुए हैं जिनमें विराट् चिन्तन छिपा हुआ है। प्राचारांग के व्याख्याकारों ने उन पारिभाषिक शब्दों का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया है। प्राचारांग में पवित्र प्रात्मार्थी श्रमणों के लिए "वसु" शब्द का प्रयोग मिलता है / "बसु" शब्द का प्रयोग वेद और उपनिषदों में पवित्र आत्मा का ही प्रतीक है, उसे हँस भी कहा है / "वसु" शब्द का वही अर्थ पारसी धर्म के मुख्य ग्रन्थ "अवेस्ता" में भी है। कहीं कहीं पर "वसु" शब्द का प्रयोग "देव" और धन के अर्थ में आया है। प्राचारांग में आमगंध शब्द का प्रयोग हुआ है / वह अपवित्र पदार्थ के अर्थ में है। वही अर्थ बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। बुद्ध ने कहा-प्राणघात, वध, छेद, चोरी, प्रसत्य, वंचना, लूट, व्यभिचार प्रादि जितनी भी अनाचार भूलक प्रवृत्ति हैं वे सभी प्रामगंध हैं। इस प्रकार अनेक शब्द भाषा-प्रयोग की दृष्टि से व्यापकता लिए हुए हैं। तुलनात्मक अध्ययन आचारांगसूत्र में जो सत्य तथ्य प्रतिपादित हुए हैं। उनकी प्रतिध्वनि वैदिक और बौद्ध वाङमय में निहारी जा सकती है। सत्य अनन्त है, उस अनन्त सत्य की अभिव्यक्ति कभी-कभी सहज रूप से एक सदृश होती है / यह कहना तो अत्यन्त कठिन है कि किस ने किस से कितना ग्रहण किया ? पर एक-दूसरे के चिन्तन पर एक-दूसरे के चिन्तन का प्रभाव पड़ना सहज है। वह सत्य की सहज अभिव्यक्ति है। यदि धार्मिक-साहित्य का गहराई से तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो सहज ही ज्ञान होगा कि किन्हीं भावों में एकरूपता है तो कहीं परिभाषा में एकरूपता है। कहीं पर युक्तियों की समानता है तो कहीं पर रूपक और कथानक एक सदृश पाये हैं। यहां हम विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही चिन्तन कर रहे हैं जिससे यह सहज परिज्ञात हो सके कि भारतीय परम्पराओं में कितना सामंजस्य रहा है। . 1. न हि महाराज उदकं जीवति, नथि उदके जीवो वा सत्ता वा / ' -मिलिन्द पण्हो, पृ० 253 से 255 [36] For Private & www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only