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________________ प्राचारांग में प्रात्मा के स्वरूप पर चिन्तन करते हुए कहा गया है -सम्पूर्ण लोक में किसी के द्वारा भी प्रात्मा का छेदन नहीं होता, भेदन नहीं होता, दहन नहीं होता और न हनन ही होता है। इसी की प्रतिध्वनि सुबालोपनिषद्' और भगवद्गीता में प्राप्त होती है। प्राचारांग में प्रात्मा के ही सम्बन्ध में कहा गया है कि जिस का आदि और अन्त नहीं है उस का मध्य कैसे हो सकता है। गौडपादकारिका में भी यही बात अन्य शब्दों में दुहराई गई है। प्राचारांग में जन्म-मरणातीत, नित्य, मुक्त प्रात्मा का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि उस दशा का वर्णन करने में सारे शब्द निवृत्त हो जाते हैं-समाप्त हो जाते हैं। वहाँ तर्क की पहुँच नहीं और न बुद्धि उसे ग्रहण कर पाती है। कर्म-मल रहित केवल चैतन्य ही उस दशा का ज्ञाता है। मुक्त आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त-गोल है / वह न त्रिकोण है, न चौरस, न मण्डलाकार / वह न कृष्ण है, न नील, न पीला, न लाल और न शुक्ल ही। वह न सुगन्धि वाला है और न दुर्गन्धि वाला है। वह न तिक्त है, न कडुआ न कषैला न खट्टा है, न मधुर है / वह न कर्कश है, न कठोर है, न भारी है, न हल्का है, वह न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है, न रूक्ष है। वह न शरीरधारी है, न पुनर्जन्मा है, न आसक्त / वह न स्त्री है, न पुरुष है, न नपुंसक है / वह ज्ञाता है, वह परिज्ञाता है। उसके लिये कोई उपमा नहीं है। वह प्ररूपी सत्ता है। वह अपद है / वचन अगोचर के लिए कोई पद-वाचक शब्द नहीं। वह शब्द रूप नहीं; रूप मय नहीं है, गन्ध रूप नहीं है, रस रूप नहीं है, स्पर्श रूप नहीं है, वह ऐसा कुछ भी नहीं। ऐसा मैं कहता हूँ।' यही बात केनोपनिषद्" कठोपनिषद्, बृहदारण्यक माण्डुक्योपनिषद् 10 तैत्तिरीयोपनिषद् मौर ब्रह्मविद्योपनिषद्।२ में भी प्रतिध्वनित हुई है। प्राचारांग में 3 ज्ञानियों के शरीर का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ज्ञानियों के बाहु कृश होते हैं, उन का मांस और रक्त शुष्क हो जाता है / यही बात अन्य शब्दों में नारदपरिव्राजकोपनिषद एवं संन्यासोपनिषद् 15 में भी कही गई है। 1 स न छिज्जइन भिज्जइ न डज्झइन हम्मद, कं च णं सव्वलोए / -~~-आचारांग 1 / 3 / 3 / 2 न जायते न म्रियते न मुह्यति न भिद्यते न दह्यते / न छिद्यते न कम्पते न कुप्यते सर्वदहनो ऽयमात्मा // -सुबालोपनिषद् 9 खण्ड ईशाद्यष्टोत्तर शतोपनिषद् पृष्ठ 210 3 अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च / नित्यः सर्वगतः स्थाणुस्चलोऽयं सनातनः / / -भगवद्गीता प्र. 2, श्लोक-२३ 4 अाचारांगसूत्र 1 / 4 / 4 / 5 पादावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽवि तत्तथा / -गौडपादकारिका, प्रकरण 2 श्लोक--६ 6 आचारांगसूत्र-१ / 5 / 6 / 7 केनोपनिषद् खण्ड-१, श्लोक--३ 8 कठोपनिषद् अ० 1 श्लोक 15 9 बृहदारण्यक, ब्राह्मण 8 श्लोक-८ 10 माण्डुक्योपनिषद्, श्लोक -7 11 तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मानन्दवल्ली 2 अनुवाद-४ 12 ब्रह्मविद्योपनिषद्, श्लोक 81-91 13 प्रागयपन्नाणाणं किसा बाहा भवति पयणए मंस-सोणिए / -आचारांग 1 / 6 / 3 / 14 नारदपरिव्राजकोपनिषद्-७ उपदेश / 15 संन्यासोपनिषद् 1 अध्याय / / [37] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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