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________________ प्रथम अध्ययम : पंचम उपदेशक : सूत्र 40-42 जो बार-बार विषयों का प्रास्वाद करता है, उनका भोग-उपभोग करता है, .. वह वक्रसमाचार ---अर्थात् असंयममय जोवन वाला है। वह प्रमन है। तथा गृहत्यागी कहलाते हुए भी वास्तव में गृहवासी ही है। विवेचन-'गुण' शब्द के अनेक अर्थ हैं / प्रागमों के व्याख्याकार प्राचार्यों ने निक्षेप पद्धति द्वारा गुण को पन्द्रह प्रकार से विभिन्न व्याख्याएँ की हैं। प्रस्तुत में गुण का अर्थ है-- पांच इन्द्रियों के ग्राह्य विषय / ये क्रमशः यों हैं ----शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श / ये ऊँचीनीची आदि सभी दिशाओं में मिलते हैं / इन्द्रियों के द्वारा प्रात्मा इनको ग्रहण करता है, सुनता है, देखता है, सूघता है, चखता है और स्पर्श करता है / ग्रहण करना इन्द्रिय का गुण है, गृहीत विषयों के प्रति मूर्छा करना मन या चेतना का कार्य है / जब मन विषयों के प्रति प्रासक्त होता है तब विषय मन के लिए बन्धन या आवर्त बन जाता है / पावर्त का शब्दार्थ है-समुद्रादि का वह जल, जो वेग के साथ चक्राकार घूमता रहता है / भेवर चाल घूम चक्कर / भाय रूप में विषय व संमार अथवा शब्दा शास्त्रकार ने बताया है, रूप एवं शब्द आदि का देखना-सुनना स्वयं में कोई दोष नहीं है, किन्तु उनमें आसक्ति (राग या द्वेष) होने से आत्मा उनमें मूच्छित हो जाता है, फंस जाता है। यह आसक्ति ही संसार है / अनासक्त आत्मा संसार में स्थित रहता हुमा भी संसारमुक्त कहलाता है। दीक्षित होकर भी जो मुनि विषयासक्त बन जाता है, वह बार-बार विषयों का सेवन करता है। उसका यह आचरण वक्र-समाचार है, कपटाचरण है, क्योंकि ऊपर से वह त्यागी दीखता है, मुनिवेष धारण किये हुए है, किन्तु वास्तव में वह प्रमादी है, गृहवामी है और जिन भगवान् की आज्ञा से बाहर है। प्रस्तुत उद्देशक में वनस्पतिकाय की हिंसा का निषेध किया गया है, यहाँ पर शब्दादि विषयों का वर्णन सहमा अप्रासंगिक-सा लग सकता है / अतः टीकाकार ने इसकी संगति वैठाते हुए कहा है. शब्दादि विषयों की उत्पत्ति का मुख्य साधन वनस्पति ही है। वनस्पति से ही वीणा आदि वाद्य, विभिन्न रंग, रूप, पुष्पादि के गंध, फल आदि के रस व रुई आदि के स्पर्श की निष्पत्ति होती है / अतः वनस्पति के वर्णन से पूर्व उसके उत्पाद वनस्पति से निष्पन्न वस्तुओं में अनासक्त रहने का उपदेश करके प्रकारान्तर से उसकी हिंसा न करने का ही उपदेश किया है / हिंसा का मूल हेतु भी आसक्ति ही है / अगर पासक्ति न रहे तो विभिन्न दिशा प्रों क्षेत्रों में स्थित ये शब्दादि गुण प्रान्मा के लिए कुछ भी अहित नहीं करते / / बनस्पतिकाय-हिंसा-वर्जन 42. लज्जमाणा पुढो पास / 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहि 1. अभिधानगजेन्द्र भाग 3, 'मुण' शब्द / 2. प्राचा० गीला टीका पत्रांक 56 3. प्राचा. टीका पत्रांक 57 / 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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