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________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध सत्यहि बस्सतिकम्मसमारंभेणं वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगहवे पाणे विहिसति। 43. तस्य खलु भगवता परिण्णा पवेविता-इमस्स चेव जीवियस्स परिगंदण-माणणपूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव वणस्सतिसत्थं समारंभति, अण्णेहि वा वणस्सतिसत्यं समारंभावेति, अण्णे वा वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे समगुजाणति / त से अहियाए, तं से अबोहीए। 44. से तं संबुज्ममाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसि णायं भवति–एस गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विस्वस्वेहि सत्थेहि वणस्सतिकम्मसमारंभेणं वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे अणे अणेगरूवे पाणे विहिंसति / 42. तू देख ! ज्ञानी हिंसा से लज्जित/विरत रहते हैं / 'हम गृह त्यागी हैं,' यह कहते हुए भी कुछ लोग नानाप्रकार के शस्त्रों से, वनस्पतिकायिक जीवों का समारंभ करते हैं। वनस्पतिकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। 43. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा/विवेक का उपदेश किया है-इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म, मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, वह (तथाकथित साधु) स्वयं वस्पतिकायिक जीवों की हिमा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, करने वाले का अनुमोदन करता है।। यह (हिंसा-करना, कराना, अनुमोदन करना) उसके अहित के लिए होता है। यह उसकी अबोधि के लिए होता है। 44. यह समझता हुआ साधक संयम में स्थिर हो जाए। भगवान् से या त्यागी अनगारों के समीप सुनकर उसे इस बात का ज्ञान हो जाता है-- 'यह (हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है।' फिर भी मनुष्य इसमें प्रासक्त हया, नानाप्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकाय का समारंभ करता है और बनस्पतिकाय का समारंभ करता हुअा अन्य अनेक प्रकार, के जीवों को भी हिंसा करता है। मनुष्य शरीर एवं वनस्पति शरीर की समानता 45. से बेमि–इमं पि जातिधम्मयं, एयं पिनातिधम्मय; इमं पि व ड्ढिधम्मयं, एयं पि वुढिधम्मयं; इमं पि चित्तमंतयं, एवं पि चित्तमंतयं; इमं पि छिण्णं मिलाति एवं पि छिण्णं मिलाति; इमं पि आहारगं, एयं पि आहारगं; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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