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________________ अष्टम अध्ययन : सूत्र 640 या पीठ एवं छाती से सहारा लेता है / हाथ लम्बा रखने से थक जाने पर आगल आदि का सहारा लेता है। अपने स्थान की मर्यादित भूमि में ही काय-परिक्रमण—परिस्पन्दन करता है, यानी हाथ, पैर आदि का संकोचन-प्रसारणादि करता है और थोड़ा-सा पैरों से चंक्रमण करता है। (सवियार का अर्थ है-चंक्रमण, अर्थात्-पैरों से थोड़ा-थोड़ा विचरण विहरण करना, चहलकदमी करना) यानी वह विहरणरूप स्थान में ही स्थित रहता है / तात्पर्य यह है कि पैरों से उतना ही चंक्रमण करता है, जिससे मल-मूत्र विसर्जन सखपूर्वक हो सके।' दूसरी प्रतिमा में कायोत्सर्ग में स्थिति के अतिरिक्त आलम्बन एवं परिस्पदन (आकुञ्चनप्रसारणादि क्रिया वाणी एवं काया से) करता है, पैरों आदि से चंक्रमण नहीं करता। तीसरी प्रतिमा में कायोत्सर्ग में स्थिति के अतिरिक्त केवल आलम्बन ही लेता है, परिस्पन्दन और परिक्रमण (चंक्रमण) नहीं करता और चौथी प्रतिमा में तो इन तीनों का परित्याग कर देता है / चतुर्थ प्रतिमा के धारक का स्वरूप यह है कि वह परिमित काल तक अपनी काया का व्युत्सर्ग कर देता है, तथा अपने केश, दाढ़ी-मूंछ, रोम-नख आदि पर से भी ममत्व विसर्जन कर देता है, इसप्रकार शरीरादि के प्रति ममत्व एवं आसक्तिरहित होकर वह सम्यक् निरुद्ध स्थान में स्थित होकर कायोत्सर्ग करता है, इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके सुमेरु की तरह निष्कम्प रहता है / यदि कोई उसके केश आदि को उखाड़े तो भी वह अपने स्थान कायोत्सर्ग से विचलित नहीं होता। ___'संणिरुद्धगामट्ठाणं ठाइस्सामि' पाठ मानकर चूर्णिकार व्याख्या करते हैं सन्निरुद्ध कैसे होता है ? समस्त प्रवृत्तियों का त्याग करके, इधर-इधर तिरछा निरीक्षण छोड़कर एक ही पुद्गल पर दृष्टि टिकाए हुए अनिमिष (अपलक) नेत्र होकर रहना सन्निरुद्ध होना कहलाता है। इसमें साधक को अपने केश, रोम, नख, मूंछ आदि उखाड़ने पर भी विचलितता नहीं होती। 640. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणोए वा जाव जएज्जासि त्ति बेमि। 640. यही (स्थानेषणा विवेक ही) उस भिक्षु या भिक्षुणी का आचार-सर्वस्व है। जिसमें सभी ज्ञानादि आचारों से युक्त एवं समित होकर वह सदा प्रयत्नशील रहे। // अष्टम अध्ययन ; प्रथम सप्तिका समाप्त // 1. आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृ० 228 पर--'चहि ठणहि ठाएज्जा, अचित्तं अवसज्जिस्सामि, अवसज्जणं अवत्थंभणं, कुड्डे खंभादिसु वा पट्टीए बा, पट्टीए उरेण वा अवलंबणं, हत्थेण संबंता परिस्संता अग्मलादिसु अवलंबति / ठाण-परिच्चातो कायविपरिक्कमणं / सवियारं चंक्रमणमित्यर्थः; उच्चार पासवणादि सुहं भवति ते जाणेज्जा।" 2. "संणिरुद्धगामट्ठाणं ठाइस्सामि-कहं सन्निरुद्ध ? अप्पजसमि (य) ति (?) अप्पतिरियं एगपोग्गल दिट्री अणि मिसणयणे विभासियवं परूढणहकेसमंसू....."।" 3. 'जाव' शब्द से यहाँ सू० 334 के अनुसार 'मिक्खुणोए वा' से 'जएज्जासि' तक का समग्र पाठ समझें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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