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________________ ད आचारांग सूत्र----द्वितीय तस्कन्ध अन्य उसी प्रकार का पदार्थ है जो कि कच्चा और अशस्त्र-परिणत है, तो उसे, अप्रासुक और अनेषणीय जान कर मिलने पर भी ग्रहण न करे। विवेचन--अपक्व और अशस्त्र-परिणत आहार क्यों अग्रास--सू० 375 से 388 तक में मुख्य रूप से विविध प्रकार की वनस्पति से जनित आहार को अपक्व, अर्धपक्व, अशस्त्रपरिणत, या अधिकोज्झितधर्मीय-अधिक भाग फेंकने योग्य, पुराने बासी सड़े हुए जीवोत्पत्ति युक्त आदि लेने का निषेध किया है, क्योंकि वह अप्रासुक और अनेषणीय होता है / यों तो अधिकांश आहार वनस्पतिजन्य ही होता है, फिर भी कुछ आहार गोरस (दूध, दही, मक्खन, घी आदि) जनित और कुछ प्राणियों द्वारा संगृहीत (मधु आदि) आहार होता है। शास्त्र में वनस्पति के दस प्रकार बताए हैं१. मूल, 2. कन्द, 3. स्कन्ध, 4. त्वचा, 5. शाखा, 6. प्रवाल, 7. पत्र, 8. पुष्प, 6. फल और 10. बीज। इनमें से त्वचा (छाल) शाखा, पुष्प आदि कुछ चीजें तो सीधी आहार में काम नहीं आतीं, वे औषधि के रूप में काम आती हैं। यहां इन दसों में आहारोपयोगी कुछ वनस्पतियों के प्रकार बता कर उन्हीं के समान अन्य वनस्पतियों को कच्ची, अपक्व, अर्धपक्व, या अशस्त्रपरिणत के रूप में लेना निषिद्ध बताया है। इन सूत्रों में क्रमशः इन वनस्पतियों का उल्लेख किया है (1) कमल आदि का कन्द, (2) पिप्पल, मिर्च, अदरक आदि का चूर्ण, (3) आम्र आदि 1. 'अपक्व'-शास्त्रों म 'आम' शब्द अपक्व के अर्थ में तथा 'अभिन्न' शब्द 'शस्त्र-अपरिणत' 'असत्व परिणते-के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 'जो फल पक कर वृक्ष से स्वयं नीचे गिर जाता है या पकने पर तोड़ लिया जाता है, उसे पक्व कहते हैं / पक्व फल भी सचित्त-बीज, गुठली आदि से संयक्त होता है। जब उसे शस्त्र से विदारित कर, बीज आदि को दूर कर या अग्नि आदि से संस्कारित कर दिया जाता है, तब वह 'मिस' अथवा शस्त्र-परिणत कहलाता है। अपनव--अर्धपक्व या अर्धसंस्कारित फल भी सचित्त एवं शस्त्रअपरिणत (अग्राह्य) कोटि में गिना गया है। -देखें बृहत्कल्प सूत्र उद्देशक 1 सूत्र 1-2 की व्याख्या (कप्पसुत्त १/१-२.मुनि कन्हैयालाल जी 'कमल') 2. आचारांग मूल एवं वृत्ति पत्रांक 347-348 / 3. दशव• जिनदास चूणि पृ. 138 मूले कंदे खंधे तया य साले तहप्पवाले य / पत्ते पुष्फे य फले बीए दसमे य नायव्वा // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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