________________ 166 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध 161. (तुम) जिस सम्यक् (वस्तु के सम्यक्त्व-सत्यत्व) को देखते हो, वह मुनित्व को देखते हो, जिस मुनित्व को देखते हो, वह सम्यक् को देखते हो / (सम्यक्त्व या सम्यक्त्वादित्रय) का सम्यकप से आचरण करना उन साधकों द्वारा शक्य नहीं है, जो शिथिल (संयम और तप में दृढ़ता से रहित) हैं, आसक्तिमूलक स्नेह से प्रार्द्र बने हुए हैं, विषयास्वादन में लोलुप हैं, वक्राचारी (कुटिल) हैं, प्रमादी (विषय-कषायादि प्रमाद से युक्त) हैं, जो गृहवासी (गृहस्थभाव अपनाए हुए) हैं। ___मुनि मुनित्व (समस्त सावध प्रवृत्ति का त्याग) ग्रहण करके स्थूल और सूक्ष्म शरीर को प्रकम्पित करे-कृश कर डाले / समत्वदर्शी वीर (मुनि) प्रान्त (बासी या वचा-बुचा थोड़ा-सा) और रूखा (नीरस, विकृति-रहित) पाहादि का सेवन करते हैं / इस जन्म-मृत्यु के प्रवाह (अोघ) को तरने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहलाता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-'ज सम्म ति पासहा त मोणं ति पासहा'.---यहाँ 'सम्यक्' और 'मौन' दो शब्द विचारणीय हैं / सम्यक् शब्द से यहाँ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-ये तीनों समन्वित रूप से ग्रहण किए गए हैं तथा मौन का अर्थ है---मुनित्व - मुनिपन / बास्तव में जहाँ सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय होंगे, वहाँ मुनित्त्र का होना अवश्यम्भावी है और जहाँ मुनित्व होगा, वहाँ रत्नत्रय का होना अनिवार्य है।' 'सम्म' का अर्थ साम्य भी हो सकता है / साम्य और मौन (मुनित्व) का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध भी उपयुक्त है। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देशक में समत्व-प्रधान मुनिधर्म की सुन्दर प्रेरणा दी गई है। // तृतीय उद्देशक समाप्त // चउत्थो उद्देसओ ' चतुर्थ उद्देशक चर्या-विवेक 162. गामाणुगामं दूइज्जमाणस्स दुज्जातं दुप्परक्तं भवति अवियत्तस्स भिक्खुणो। वयसा वि एगे बुइता कुप्पंति माणवा / उण्णतमाणे य णरे महता मोहेण मुज्झति / 1. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 193 / (ख) 'मौन' शब्द के लिए अध्ययन 2 सूत्र 99 का विवेचन देखें / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org