________________ 167 पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 162 संबाहा बहवे भुज्जो 2 दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो। एतं ते मा होउ। एयं कुसलस्स देसणं / तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए' तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे, जयं विहारी चित्तणिवाती पंथणिज्झाई पलिवाहिरे पासिय पाणे गच्छेज्जा / से अभिक्कममाणे पडिक्कमाणे संकुचेमाणे पसारेमाणे विणियट्टमाणे संपलिमज्जमाणे। 162. जो भिक्षु ( अभी तक) अव्यक्त-अपरिपक्व-अवस्था में है, उसका अकेले ग्रामानुग्राम विहार करना दुर्यात (अनेक उपद्रवों से युक्त अत: अवांछनीय गमन) और दुष्पराक्रम (दुःसाहस से युक्त पराक्रम) है। कई मानव (अपरिपक्व साधक) (थोड़े-से प्रतिकूल) वचन सुनकर भी कुपित हो जाते हैं। स्वयं को उन्नत (उत्कृष्ट-उच्च) मानने वाला अभिमानी मनुष्य (अपरिपक्व साधक) (जरा-से सम्मान और अपमान में) प्रबल मोह से (अज्ञानोदय से) मूढ़ (मतिभ्रान्त-विवेकविकल) हो जाता है। उस (अपरिपक्व मन:स्थिति वाले साधक) को एकाकी विचरण करते हुए अनेक प्रकार की उपसर्ग जनित एवं रोग-आतंक आदि परीषहजनित संबाधाएँ-पीड़ाएँ बार-बार पाती हैं, तब उस अज्ञानी--अतत्त्वदर्शी के लिए उन बाधाओं को पार करना अत्यन्त कठिन होता है, वे उसके लिए दुर्लध्य होती हैं। (ऐसी अव्यक्त अपरिपक्व अवस्था में मैं अकेला विचरण करू), ऐसा विचार तुम्हारे मन में भी न हो। ___यह कुशल (महावीर) का दर्शन/उपदेश है। (अव्यक्त साधक द्वारा एकाकी विचरण में ये दोष उन्होंने केवलज्ञान के प्रकाश में देखे हैं)। अतः परिपक्व साधक उस (वीतराग महावीर के दर्शन में संघ के प्राचार्यगुरु या संयम) में ही एकमात्र दृष्टि रखे, उसी के द्वारा प्ररूपित विषय-कषायासक्ति से मुक्ति में मुक्ति माने, उसी को आगे (दृष्टिपथ में) रखकर विचरण करे, उसी का संज्ञान-स्मृति सतत सब कार्यों में रखे, उसी के सान्निध्य में तल्लीन होकर रहे। 1. इसके बदले 'तम्मोत्तीए' पाठान्तर है, जिसका अर्थ शीलांकवृत्ति में है-'तेनोक्ता मुक्तिः तन्मुक्ति स्तया'-उसके (तीर्थकरादि) के द्वारा उक्त (कथित) मुक्ति को तन्मुक्ति कहते हैं, उससे / 2. 'पलिवाहरे' में 'पलि' का अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया हैं-'चित्तणिधायी पलि' जो चित्त में रखी जाती है, वह पलि है। 'पलिवाहरे' प्रतीप प्राहरे, जन्तु दृष्ट्वा चरणं संकोचए 'देसी भासाए'- पलिव देशी भाषा में व्यवहृत होता है। दोनों शब्दों का अर्थ हुना-प्रतिकूल (दिशा में) खींच ले यानी जन्तु को देखकर पैर सिकोड़ ले / परन्तु शीलांकाचार्य इसका अन्य अर्थ करते हैं--परि समन्ताद् मुरोरवग्रहात् पुरतः पृष्ठतो वाऽवस्थानात् कार्यमृते सदा बाह्यः स्यात् / कार्य के सिवाय गुरु के अवग्रह (क्षेत्र) से आगेपीछे चारों ओर स्थिति से बाहर रहने वाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org