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________________ 238 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतकाध सभी साधकों की दृढता, धुति, मति, विरक्ति, कष्ट-सहनक्षमता, संहनन, प्रज्ञा, एक सरीखी नहीं होती, इसलिए निर्बल मन आदि से युक्त साधक संयम से सर्वथा भ्रष्ट न हो जाए, क्योंकि संयम में स्थिर रहेगा तो आत्म-शुद्धि करके दृढ हो जाएगा, इस दृष्टि से संभव है, इस अध्ययन में कुछ मंत्र, तंत्र, यंत्र विद्या प्रादि के प्रयोगी साधक को संयम में स्थिर रखने के लिए दिए गए हों, परन्तु प्रागे चलकर इनका दुरुपयोग होता देखकर इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया हो और सम्भव है एक दिन इस अध्ययन को आचारांग से सर्दथा पृथक कर दिया गया हो। वृत्तिकार इस अध्ययन को विच्छिन्न बताते हैं / 3. जो भी हो, यह अध्ययन. आज : हमारे समक्ष अनुपलब्ध है। . . 1, जेशयरिया विज्जा आगाससमा महापरिन्नाऔं / मंदानि भग्नावइरं अपच्छिमो जो सुयधराणं / .769 // आवश्यक नियुक्ति इस गाथा से प्रतीत होता है, आर्यवज्रस्वामी ने महापरिज्ञा अध्ययन से कई विद्याएँ उद्घ त की थीं। प्रभावकचरित वजप्रबन्ध (148) में भी कहा है-वनस्वामी ने आचारांग के महापरिज्ञाध्ययन से 'आकाशगामिनी' विद्या उद्धृत की। 2. संपत्त महापरिणा ण पढिजई असमणुण्णाया-प्राचा. चणि। 3. सप्तम महापरिजाध्ययनं, तन्च सम्प्रति व्यवच्छिन्नम् -पाचा शीला० टीका पत्रांक 259 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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