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________________ प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 19.22 21. पणया वीरा महावोहि / (21) वीर पुरुप महापथ के प्रति प्रगत- अर्थात् समर्पित होते हैं / क्वेिचन--महापथ का अभिप्राय है, अहिंसा व संयम का प्रशस्त पथ / अहिंसा व संयम की साधना में देश, काल सम्प्रदाय व जाति को कोई सोमा या बंधन नहीं है। वह सर्वदा, सर्वत्र सब के लिए एक समान है। संयम व शान्ति के पाराधक सभी जन इसी पथ पर चले हैं, चलते हैं और चलेंगे। फिर भी यह कभी संकीर्ण नहीं होता, अतः यह महापथ है। अनगार इसके प्रति सम्पूर्ण भाव से समर्पित होते हैं / अपकायिक जीवों का जीवत्व 22. लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं / से बेमि-गेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा। जे लोगं अन्भाइक्खति, से अत्ताणं अन्भाइक्खति, जे अत्ताणं अन्भाइक्खति से लोभ अब्भाइक्खति। 22. मुनि (अतिशय ज्ञानी पुरुषों) को प्राज्ञा---वाणी से लोक को-अर्थात् अप्काय के जीवों का स्वरूप जानकर उन्हें अकुतोभय बनादे अर्थात् उन्हें किसी भी प्रकार का भय उत्पन्न न करे, संयत रहे / ___ मैं कहता हूँ- मुनि स्वयं, लोक-अप्कायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप (निषेध) न करे / न अपनी आत्मा का अपलाप करे। जो लोक का अपलाप करता है, वह वास्तव में अपना ही अपलाप करता है। जो अपना अपलाप करता है, वह लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। विवेचन---यहाँ प्रसंग के अनुसार 'लोक' का अर्थ अपकाय किया गया है / पूर्व सूत्रों में पृथ्वीकाय का वर्णन किया जा चुका है, अब अप्काय का वर्णन किया जा रहा है / टीकाकार ने 'अकुतोभय' के अर्थ किये हैं-(१) जिससे किसी जीव को भय न हो, वह संयम / तथा (2) जो कहीं से भी भय न चाहता हो-वह 'अप्कायिक जीव / ' यहाँ प्रथम संयम अर्थ प्रधानतया वांछित है।' सामान्यतः अपने अस्तित्व को कोई भी अस्वीकार नहीं करता, पर शास्त्रकार का कपन है, कि जो व्यक्ति अपकायिक जीवों की सत्ता को नकारता है, वह वास्तव में स्वयं की सत्ता को नकारता है। अर्थात् जिस प्रकार स्व का अस्तित्व स्वीकार्य है, अनुभवगम्य है, उसी प्रकार अन्य जीवों का अस्तित्व भी स्वीकारना चाहिए / यही 'आयतुले पयासु' आत्मतुला' का सिद्धान्त है। ___मूल में 'अभ्याख्यान' शब्द पाया है, जो कई विशेष अर्थ रखता है। किसी के अस्तित्व को नकारना, सत्य को और असत्य को असत्य सत्य, जीव को अजीव, अजीव को जीव ख्यापित करना अभ्याख्यान-विपरीत कथन है / अर्थात् 'जीव को अजीव' बताना उस पर 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक-४०११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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