________________ प्रथम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 335-336 जा चुका हो) है, घर से बाहर निकाला हुआ है, दाता द्वारा अधिकृत है, परिभुक्त है और आसेवित है तो ऐसे आहार को प्रासुक और एषणीय समझ कर मिलने पर ग्रहण कर ले। विवचन-पर्व विशेष में निष्पन्न आहार कब अग्राह्य, कल ग्राह्य ?--इस सूत्र में अष्टमी आदि पर्व विशेष के उत्सव में श्रमणादि को खास तौर से दिए जाने वाले एसे आहार का निषेध किया है, जो श्रमणादि के सिवाय किन्हीं दूसरों (गृहस्थों) के लिए नहीं बना है, न उसे बाहर निकाला है, न दाता ने उसका उपयोग व सेवन किया है, न दाता का स्वामित्व है। क्योंकि ऐसा आहार सिर्फ श्रमणादि के निमित्त से ही बनाया गया माना जाता है, अगर उसे जैन-श्रमण लेता है तो वह आरम्भ-दोषों का भागी बनेगा। किन्तु यदि ऐसा आहार पुरुषान्तरकृत आदि है तो उसे लेने में कोई दोष नहीं है। साथ ही इस बात के निर्णय के लिए उपाय भी बताया है। ____ उक्खा, कुंभीमुहा, कलोवाती आदि शब्दों के अर्थ इस प्रकार हैं-उक्खा पिट्ठर, बड़ी बटलोई जैसा बर्तन, कुम्भी--संकड़े मुँह वाले बर्तन / कलोवाती-पिटारी या बांस की टोकरी। संनिधि हैं-गोरस आदि। मिक्षा योग्य कुल 336. से भिक्खू वा 2 जाव अणुपविढे समाणे से ज्जाइं पुण कुलाई जाणेज्जा, तंजहा-उग्गकुलाणि वा भोगकुलाणि का राइष्णकुलाणि वा खत्तियकुलाणि वा इक्खागकुलाणि वा हरिवंसकुलाणि वा एसियकुलाणि वा वेसियकुलाणि वा गंडागकुलाणि वा कोट्टागकुलाणि वा गामरक्खकुलणि वा बोक्कसालियकुलाणि वा अण्णतरेसु वा तहप्पगारेसु अदुगुछिएसु अगरहितेसु असणं वा 4 फासुयं जाव पडिगाहेज्जा। 336. वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में आहार प्राप्ति के लिए प्रविष्ट होने पर (आहार ग्रहण योग्य) जिन कुलों को जाने वे इस प्रकार हैं-उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल, क्षत्रियकुल, इक्ष्वाकुकुल, हरिवंशकुल, गोपालादिकुल, वैश्यकुल, नापितकुल, बढ़ई-कुल, ग्रामरक्षक कुल या तन्तुवाय-कुल, ये और इसी प्रकार के और भी कुल, जो अनिन्दित और अहित हों, उन कुलों (घरों) से प्रासुक और एषणीय अशनादि चतुविध आहार मिलने पर ग्रहण करे / विवेचन-मिक्षाग्रहण के लिए कुलों का विचार-यद्यपि जैन-श्रमण समतायोगी होता है, जाँति-पाति के भेदभाव, छुआ-छूत, रंग-भेद, सम्प्रदाय-प्रान्तादि भेद में उसका कतई विश्वास नहीं होता, न वह इन भेदों को लेकर राग-द्वेष, मोह-घृणा या उच्च-नीच आदि व्यवहार करता है बल्कि शास्त्रों में जहां साधु के भिक्षाटन का वर्णन आता है, वहां स्पष्ट उल्लेख है-"उच्चनीयमजिसमकुलेसु अडमाणे" (-उच्च, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षाटन करता हुआ)। यहाँ उच्च,नीच, मध्यम का जाति-वंश परक या रंग-प्रान्त-राष्ट्रादिपरक अर्थ न करके जैनाचार्यों ने 1. टीका पत्र 327 / 2. अन्तकृद्दशा वर्ग 2 तथा अन्य आगम / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org